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पञ्चाध्यायी।
[दूसरा
अर्थ-सत् द्रव्यार्थ नयकी अपेक्षासे एक प्रकार ही देव है क्योंकि शुद्धात्माकी उपलब्धि (प्राप्ति) एक ही प्रकार है। पर्यायार्थिकनयसे अरहन्त और सिद्ध, ऐसे देवके दो भेद हैं।
अरहन्त और सिद्धका स्वरूप- ! दिव्यौदारिकदेहस्थो धौतघातिचतुष्टयः। ज्ञानदृग्वीर्यसौख्याख्यः सोऽर्हन् धर्मोपदेशकः ॥ ६०७ ॥ मूर्तिमद्देहनिर्मुक्तो मुक्तो लोकाग्रसंस्थितः। ज्ञानाद्यष्टगुणोपेतो निष्कर्मा सिडसंज्ञकः ॥ ६०८॥ अर्हन्निति जगत्पूज्यो जिनः कर्मारिशातनात् । महादेवोधिदेवत्त्वाच्छङ्करोपि सुखावहात् ॥ ६०९॥ विष्णुर्ज्ञानेन सर्वार्थविस्तृत्त्वात्कथञ्चन । ब्रह्म ब्रह्मज्ञरूपत्वारिदुःखापनोदनात् ॥ ६१० ॥ इत्याद्यनेकनामापि नानेकोऽस्ति स्वलक्षणात् । यतोऽनन्तगुणात्मैकद्रव्यं स्यात्सिडसाधनात् ॥ ६११॥ चतुर्विशतिरित्यादि यावदन्तमनन्तता ।
तहहत्त्वं न दोषाय देवत्वैकविधत्त्वतः॥ ६१२ ।।
अर्थ-जो दिव्य-औदारिक शरीरमें स्थित है, घाति कर्म चतुष्टयको धो चुका है, ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुखसे परिपूर्ण है और धर्मका उपदेश देनेवाला है, वह अरहन्त देव है।
जो मूर्तिमान् शरीरसे मुक्त हो चुका है, सम्पूर्ण कर्मोसे छूट चुका है, लोकके अग्रभाग ( सिद्धालय ) में स्थित है, ज्ञानादिक आठ गुण सहित है और कर्ममलकलंकसे रहित है वह सिद्ध देव है।
वह देव जगत्पूज्य है इसलिये अरहन्त कहलाता है, कर्म रूपी शत्रुको जीतनेवाला है इसलिये जिन कहलाता है, सम्पूर्ण देवोंका स्वामी है इसलिये महादेव कहलाता है, सुख देने वाला है, इसलिये शंकर कहलाता है, ज्ञानद्वारा सम्पूर्ण पदार्थों में फैला हुआ है इसलिये कथंचित् विष्णु ( व्यापक ) कहलाता है, आत्माको पहचाननेवाला है इसलिये ब्रह्मा कहलाता है,
और दुःखको दूर करनेवाला है इसलिये हरि कहलाता है । इत्यादि रीतिसे वह देव अनेक नामोंवाला है । तथापि अपने देवत्व लक्षणकी अपेक्षासे वह एक ही है। अनेक नहीं है। क्योंकि अनन्तगुणात्मक एक ही ( समान ) आत्मद्रव्य प्रसिद्ध है।
और भी चौवीस तीर्थकर आदि अनेक भेद हैं तथा गुणोंकी अपेक्षा अनन्त भेद हैं। ये सब भेद (बहुपना) किसी प्रकार दोषोत्पादक नहीं हैं क्योंकि सभी देवभेदों में देवत्वगुण एक प्रकार ही है।