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१५४] .. पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा पैदा हुए थे। इसी प्रकार कर्मकृत भेदसे जीवोंमें कुछ भ्रमशील भेद ही समझने लगते हैं। परन्तु वास्तवमें सभी आत्मायें समान हैं।
जले जम्पालवजावे यावत्कर्माशुचि स्फुटम् ।
अहंता चाविशेषादा नूनं कर्ममलीमसः॥ ५८४ ॥
अर्थ-जलमें काईकी तरह इस जीवमें जब तक अपवित्र कर्मका सम्बन्ध है, तब तक इस कर्म-मलीन आत्माके सामान्य रीतिसे अहं बुद्धि लगी हुई है। अर्थात् इतर पदार्थोमें इसने आपा मान रक्खा है।
निष्कर्षअस्ति सद्दर्शनस्यासौ गुणो निर्विचिकित्सकः । यतोऽवश्यं स तत्रास्ति तस्मादन्यत्र न कचित् ॥ ५८५ ।।
अर्थ-यह निर्विचिकित्सा-गुण सम्यग्दृष्टिका ही गुण है । क्योंकि सम्यग्दृष्टिमें वह अवश्य है । सम्यग्दृष्टिसे अतिरिक्त कहीं नहीं पाया जाता है।
कर्मपर्यायमात्रेषु रागिणः स कुतो गुणः ।
सविशेषेऽपि सम्मोहाद्वयोरैक्योपलब्धितः ॥ ५८३ ॥
अर्थ-जड़ और चैतन्यमें परस्पर विशेषता होनेपर भी मोहसे दोनोंको एक समझने वाला-कमकी पर्यायमात्रमें जो रागी होरहा है, उसके वह निर्विचिकित्सा गुण कहांसे हो
सक्ता है ?
इत्युक्तो युक्तिपूर्वोसौ गुणः सद्दर्शनस्य यः ।
नाविवक्षो हि दोषाय विवक्षो न गुणाप्तये ॥५८७॥
अर्थ-इस प्रकार युक्तिपूर्वक - निर्विचिकित्सा गुण सम्यग्दृष्टिका कहा गया है। यदि यह गुण न कहा जाय तो कोई दोष नहीं होसक्ता, और कहनेपर कोई विशेष लाभ नहीं है। भावार्थ-यह एक सामान्य कथन है । निर्विचिकित्सा गुणके कहने और न कहने पर कोई गुण दोष नहीं होता, इसका यही आशय है कि सम्यग्दर्शनके साथ इसका होना अवश्यंभावी नहीं है। हो तो भी अच्छा और न हो तो कोई हानि भी नहीं है।
अमूढदृष्टिअस्ति चामूढदृष्टिः सा सम्यग्दर्शनशालिनी। ययालंकृतवपुष्येतद्वाति सद्दर्शनं नरि ॥ ५८८ ॥
अर्थ-अमूढदृष्टि गुण भी सम्यग्दर्शन सहित ही होता है। अमूढदृष्टि गुणसे विभूषित आत्मामें यह सम्यग्दर्शन शोभायमान होता है।