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पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा
अर्थ - मिथ्यादृष्टीको ऐसी ऐसी (जो कुछ है सो इसी संसार में है) निस्सार भावनायें मिथ्या कर्मके उदयसे आया करती हैं। वे ऐसी ही हैं जैसे कि किसी उन्मत्त (पागल) आदमीको हुआ करती हैं। वायुसे हिलोरा हुआ समुद्र जिस प्रकार तरंगोंसे उछलने लगता है, उसी प्रकार मिथ्यात्त्वके उदयसे मिथ्यादृष्टी अज्ञानभावोंसे उछलने लगता है ।
शङ्काकार
ननु कार्यमनुद्दिश्य न मन्दोपि प्रवर्तते ।
भोगकांक्षां विना ज्ञानी तत्कथं व्रतमाचरेत् ॥ ५५४ ॥
अर्थ - शङ्काकार कहता है कि बिना किसी कार्यको लक्ष्य किये मन्द पुरुष भी किसी काम नहीं लगता है तो फिर विशेष ज्ञानी - सम्यग्ज्ञानी बिना भोगोंकी चाहना के कैसे व्रतोंको वारण करता है ?
फिर भी शङ्काकार
नासिद्धं बन्धमात्रत्वं क्रियायाः फलमद्वयम् ।
शुभमात्रं शुभायाः स्यादशुभायाश्चाऽशुभावहम् ॥ ५५५ ॥ नचाssशङ्कयं क्रियाप्येषा स्यादबन्धफला कचित् । दर्शनातिशयाद्धेतोः सरागेपि विरागवत् ॥ ५५६ ॥ यतः सिद्धं प्रमाणाद्वै नूनं बन्धफला क्रिया । अर्वाक् क्षीणकषायेभ्योऽवश्यं तद्धेतुसंभवात् ॥ ५५७ ॥ सरागे वीतरागे वा नूनमौदयिकी क्रिया । अस्ति बन्धफलाऽवश्यं मोहस्यान्यतमोदयात् ॥ ५५८ ॥, न वाच्यं स्यादात्मदृष्टिः कश्चित् प्रज्ञापराधतः । अपि बन्धफलां कुर्यात्तामबन्धफलां विदन् ॥ ५५९ ॥ यतः प्रज्ञाविनाभूतमस्ति सम्यग् विशेषणम् । तस्याश्चाऽभावतो नूनं कुतस्त्या दिव्यता दृशः ॥ ५६० ॥
अर्थ- - शङ्काकार कहता है कि जितनी भी क्रियायें की जाती हैं सवोंका एक बन्ध होना ही फल है । यह बात भली भांति सिद्ध है । यदि वह शुभ क्रिया है तो उसका फल शुरूप होगा और यदि वह अशुभ है तो उसका फल भी अशुभ ही होगा । परन्तु कोई सी क्रिया क्यों न हो वह बन्ध अवश्य करेगी । ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये कि यह क्रिया कहीं पर बन्धन करै । जिस प्रकार वीतरागी पुरुषमें क्रिया बन्धरूप फलको नहीं पैदा करती है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनके अतिशयके कारण सरागीमें भी बन्धफला क्रिया नहीं