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पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा अर्थ-व्रत-स्वरूप जो अच्छी क्रिया है वह विना व्रत चाहने वालेके कैसे हो सक्ती है. ? अर्थात् नहीं होसक्ती । व्रत रूपा क्रिया इच्छानुसार की जाती है इसलिये व्रत करने वाला व्रत क्रियाका कर्ता है यह वात सिद्ध हुई ! भावार्थ-श्रेष्ठ क्रियायें विना इच्छा किये नहीं होसक्तीं ऐसा शंकाकारका अभिप्राय है।
उत्तरनैवं यतोस्त्यनिष्टार्थः सर्वः कर्मोदयात्मकः ।
तस्मान्नाकांक्षते ज्ञानी यावत् कर्म च तत्फलम ॥५६४॥
अर्थ-उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है। क्योंकि जितना भी कुछ कर्मके उदय-स्वरूप है सब अनिष्ट-अर्थ है । इसलिये जितना भी कर्म और उसका फल है उसे ज्ञानी पुरुष नहीं चाहता है।
___ दृष्टिदोषयत्पुनः कश्चिदिष्टार्थोऽनिष्टार्थः कश्चिदर्थसात। तत्सर्व दृष्टिदोषत्वात् पीतशंखावलोकवत ॥५६५ ॥
अर्थ-और जो प्रयोजन वश कोई पदार्थ इष्ट मान लिया जाता है अथवा कोई पदार्थ अनिष्ट मान लिया जाता है वह सब मानना दृष्टि ( दर्शन ) दोषसे है। जिसप्रकार दृष्टि (नेत्र ) दोषसे सफेद शंख भी पीला ही दीखता है उसी प्रकार मोह बुद्धिसे कर्मोदय प्राप्त पदार्थों में यह मोही जीव इष्टानिष्ट बुद्धि करता है। वास्तवमें कर्मोदयसे होनेवाला सभी अनिष्ट ही है।
सम्यग्दृष्टिकी दृष्टिदृङ्मोहस्यात्यये दृष्टिः साक्षात् सूक्ष्मार्थदर्शिनी ।
तस्याऽनिष्टेऽस्त्यनिष्टार्थबुद्धिः कर्मफलात्मके ॥५६६ ॥
अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके नाश हो जाने पर साक्षात् सूक्ष्मपदार्थोंको देखनेवाली दृष्टि ( दर्शन ) होजाती है। फिर सम्यग्दृष्टिकी, कर्मके फल स्वरूप अनिष्ट पदार्थोंमें अनिष्ट पदार्थ रूपा ही बुद्धि होती है । भावार्थ-सम्यग्दृष्टि कर्मके उदयमात्रको ही अनिष्ट समझता है। कर्मोदयसे प्राप्त सभी पदार्थ उसकी दृष्टिमें अनिष्ट रूप ही भासते हैं।
कर्म और कर्मका फल अनिष्ट क्यों है ? नचाऽसिद्धमनिष्टत्वं कर्मणस्तत्फलस्य च ।
सर्वतो दुःखहेतुत्वाद्युक्तिस्वानुभवागमात् ॥५६७॥
अर्थ-कर्म और कर्मका फल अनिष्ट है, यह वात असिद्ध नहीं है क्योंकि जितना भी कर्म और कर्मका फल है सभी सर्वदा दुःखका ही कारण है । यह वात युक्ति, स्वानुभत्र और आगमसे प्रसिद्ध है ।