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पश्चाध्यायी।
[ दूसरा
आशङ्कानवाशङ्कयं परोक्षास्ते सदृष्टमोचराः कुतः।
वैः सह सन्निकर्षस्य साक्षकस्याप्यसंभवात् ।। ४८६॥
अर्थ-वे परोक्ष पदार्थ सम्यग्दृष्टिके विषय कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि उनके साथ इन्द्रियोंका सम्बन्ध ही असंभव है ? ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये ।
क्योंकि-- अस्ति तत्रापि सम्यक्त्वमाहात्म्यं दृश्यते महत् । यदस्य जगतो ज्ञानमस्त्यास्तिक्यपुरस्सरम् ॥ ४८७ ॥
अर्थ-परोक्ष पदार्थोके बोध करनेमें भी सम्यग्दर्शनका बड़ा भारी माहात्म्य है । म्यादृष्टिको इस जगत्का ज्ञान आस्तिक्य-बुद्धि पूर्वक लेजाता है।
स्वभाव-- नासंभवमिदं यस्मात् स्वभावोऽतर्कगोचरः ।
अतिवागतिशयः सर्वो योगिनां योगशक्तिवत् ॥ ४८८ ॥
अर्थ-सम्यग्दृष्टी आस्तिक्य बुद्धिपूर्वक जगतभरका ज्ञान कर लेता है, यह बात असंभव नहीं है । क्योंकि सम्यग्दर्शनका स्वभाव ही ऐसा है । स्वभावमें तर्कगा हो नहीं सक्ती, योगियोंकी योगशक्तिकी तरह यह सब अतिशय बचनोंसे बाहर है।
भावार्थ-जिस प्रकार अग्निकी उष्णतामें तर्कणा करना “ अग्नि गरम क्यों है " व्यर्थ है, क्योंकि अग्निका स्वभाव ही ऐसा है। किसीके स्वभाव में क्या सर्क वितर्क की जाय, यह एक स्वाभाविक बात है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शनका स्वभाव ही ऐसा है कि उसकी बुद्धिमें यथार्थ पदार्थ, आस्तिक्य पुरस्सर ही स्थान पाजाते हैं। जिस प्रकार योगियोंकी योगशक्तिका दूसरोंको पता नहीं चलता कि उसका कहां तक माहात्म्य है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनका पाहात्म्य भी मिथ्यादृष्टिकी समझमें नहीं आसक्ता।
सम्यग्दृष्टिका अनुभवअस्ति चात्मपरिच्छेदि ज्ञानं सम्यम्हगात्मनः । स्वसंवेदनप्रत्यक्षं शुद्धं सिद्धास्पदोपमम् ॥ ४८९ ॥
अर्थ-आत्माका अनुभव करानेवाला ज्ञान सम्यग्दृष्टिको है । सम्यग्दृष्टिका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष शुद्ध है और सिद्धोंकी उपमावाला है।
अनुभवकी योग्यतायत्रानुभूयमानेपि सर्वैराधालमात्मनि । मिथ्याकर्मविपाकादै नानुभूतिः शरीरिणाम् ॥ ४९० ॥