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अध्याय । - सुबोधिनी टीका।
[ १४३ अर्थ-वर्तमानमें प्राप्त जो स्पर्शनादि इन्द्रियोंके विषय हैं अथवा जो आगामी मिलने वाले हैं, उनमें जिसका आदर नहीं है, वही (सम्यग्दृष्टी) वास्तवमें वेदना-भयसे निडर है ।
व्याधिस्थानेषु तेषूचै सिद्धोऽनादरो मनाक् ।
बाधाहेतोः स्वतस्तेषामाभयस्याविशेषतः ॥५३०॥
अर्थ-इन्द्रियोंके विषय, व्याधियोंके मुख्य स्थान हैं क्योंकि वे बाधाके कारण हैं। इसलिये उनमें रोगसे कोई विशेषता नहीं है अर्थात् आत्माको दुःख देनेवाले रोग इन्द्रियोंके विषय हैं।
अत्राण (अरक्षण) भय-- अत्राणं क्षणिकैकान्ते पक्षे चित्तक्षणादिवत् । , नाशात्प्रागंशनाशस्य त्रातुमक्षमताऽऽत्मनः ॥५३१॥
अर्थ-सर्वथा क्षणिक मानने वाला बौद्ध दर्शन है वह चित्तका क्षणमात्रमें नाश मानता है । चित्त पदसे आत्मा समझना चाहिये। जिसप्रकार वह आत्माको क्षण नाशी मानता है उसी प्रकार अन्यान्य सभी पदार्थोको भी क्षण--विनाशी मानता है । साथमें चित्त सन्तति मानता है । आत्मा नाशवाला है परन्तु उसकी सन्तान बराबर चलती रहती है। ऐसा बौद्ध सिद्धान्त है परन्तु जैन सिद्धान्त ऐसा सर्वथा नहीं मानता वह पर्यायकी अपेक्षा आत्मा तथा इतर पदार्थोका नाश मानता है किंतु द्रव्यकी अपेक्षासे सभीको नित्य मानता है। परन्तु मिथ्यादृष्टी इससे उलटा ही समझता है । जिस समय मनुष्य पर्यायका नाश तो नहीं हुआ है, परन्तु धीरे २ आयु कम हो रही है ऐसी अवस्थामें वह (मिथ्यादृष्टी) उसकी रक्षा तो कर नहीं सक्त', परन्तु नाशका भय उसे बराबर लगा रहता है। उसीका नाम अत्राण-भय ( अरक्षा-भय ) है।
मिथ्याष्टिका विचार-- भीतिः प्रागंशनाशात्स्यादशिनाशभ्रमोन्वयात् । मिथ्यामात्रैकहेतुत्वान्नूनं मिथ्यादृशोऽस्ति सा ॥ ५३२॥
अर्थ-मिथ्याग्दृष्टी समझता है कि धीरे २ आत्माकी पर्यायोंका नाश होनेसे संभव है कि कभी सम्पूर्ण आत्माका ही नाश हो जाय । क्योंकि सन्तानके नाशसे सन्तानीके नाशका भी डर है । इस प्रकारका भय मिथ्यादृष्टीको पहलेसे ही हुआ करता है। इसमें कारण केवल मिथ्यात्त्वकर्मका उदय ही है ऐसा भय नियमसे मिथ्यादृष्टीको ही होता है सम्यग्दृष्टीको कभी नहीं होता।