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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका। ' अर्थ-मिथ्यादृष्टी अपने आत्माको नहीं पहचानता है क्योंकि मिथ्यात्व ही उसका एक क्षेत्र है। वह मूर्ख, कर्म और कर्मके फल स्वरूप ही अपनेको समझता है।
ततो नित्यं भयाक्रान्तो वर्तते भ्रान्तिमानिव । मनुते मृगतृष्णायामम्भोभारं जनः कुधीः ॥ ५२० ॥
अर्थ—इसलिये वह सदा भयभीत रहता है सदा भ्रान्तसा रहता है और वह कुबुद्धि मिथ्यादृष्टी पुरुष मृगतृष्णामें ( सफेद रेतीली जमीनमें ) ही जल समझता है।
सम्यग्दृष्टी-- अन्तरात्मा तु निर्भीकः पदं निर्भयमाश्रितः ।
भीतिहेतोरिहावश्यं भ्रान्तेरत्राप्यसंभवात् ।। ५२१ ॥
अर्थ-अन्तरात्मा ( सम्यग्दृष्टी ) तो सदा निर्भय रहता है, क्योंकि वह निर्भय स्थान ( आत्मत्तत्त्व ) पर पहुंच चुका है। इसीलिये भयका कारण--भ्रान्ति भी उसके असंभव है अर्थात् सम्यग्दृष्टीको भ्रमबुद्धि भी नहीं होती।
मिथ्यादृष्टी-- • मिथ्याभ्रान्तिर्यदन्यत्र दर्शनं चान्यवस्तुनः ।
यथा रजौ तमोहेतोः साध्यासाद्रवत्यधीः ॥ ५२२ ॥
अर्थ-जो मिथ्या--भ्रम होता है और जो अयथार्थ (अन्य वस्तुका) श्रद्धान होता है वह मिथ्यादृष्टीके ही होता है । जिस प्रकार अन्धकारके कारण रस्सीमें सर्पका निश्चय होनेसे डर लग जाता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टी सदा मोहान्धकारके कारण डरता ही रहता है।
सम्यग्दृष्टी-- स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ज्योतिर्यो वेत्त्यनन्यसात् ।
स बिभेति कुतो न्यायादन्यथाऽभवनादिह ॥ ५२३ ॥ . अर्थ-जो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष रूप ज्योतिको अपनेसे अभिन्न समझता है, वह (सम्यग्दृष्टी ) किस न्यायसे डरेगा। उसे निश्चय है कि अन्यथा कुछ नहीं होसकता, अर्थात् वह आत्माको सदा अविनश्वर समझता है इसलिये किसीसे नहीं डरता। .
वेदना-भय-- वेदनाऽऽगन्तुका बाधा मलानां कोपतस्तनौ ।
भीतिः प्रागेध कम्पः स्यान्मोहादा परिदेवनम् ॥ ५२४ ॥ अर्थ-शरिरमें वात, पित्त, कफ, इन तीन मलोंका कोप होनेसे आनेवाली जो बाधा