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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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नहीं लगता । पारिशेषानुमानसे ( फलवतात् ) यह बात सिद्ध होती है कि ज्ञानी और अज्ञानीमें बड़ा भारी अन्तर है । इसका कारण वही मोहनीय कर्म है ।
अज्ञानीके विचार -
अज्ञानी कर्मनो कर्मभावकर्मात्मकं च यत् ।
मनुते सर्वमेवैतन्मोहादद्वैतवादवत् ॥ ५०९ ॥
अर्थ - अज्ञानी जीव, द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म सभीको मोहसे अद्वैतवादकी तरह अर्थात् आत्मासे अभिन्न ही समझता है ।
और भी-
विश्वाद्भिन्नोपि विश्वं स्वं कुर्वन्नात्मानमात्महा ।
भूत्वा विश्वमयां लोके भयं नोज्झति जातुचित् ॥ ५१० ॥ अर्थ -- आत्माका नाश करनेवाला - अज्ञानी जीव यद्यपि जगसे भिन्न है, तो भी जगत्को अपना ही बनाता है और विश्वमय बनकर लोकमें कभी भी भयको नहीं छोडता, वह सदा भयभीत ही बना रहता है ।
सारांश --
तात्पर्य सर्वतोऽनित्ये कर्मणः पाकसंभवात् ।
नित्यबुद्ध्या शरीरादौ भ्रान्तो भीतिमुपैति सः ॥ ५११ ॥
अर्थ - उपर्युक्त कथनका सारांश इतना ही है कि अज्ञानी पुरुष कर्मके उदय वश सर्वथा अनित्य शरीर- आदि पदार्थों में नित्यबुद्धि रखकर भ्रम करता हुआ भय करने लगता है ।
ज्ञानीके विचार
सम्यग्दृष्टिः सदैकत्त्वं स्वं समासादयन्निव ।
यावत्कर्मातिरिक्तत्त्वाच्छुडमत्येति चिन्मयम् ॥ ५१२ ॥
अर्थ- सम्यग्दृष्टी पुरुष सदा अपनेको अकेला ही समझता है और जितना भी कर्मका विकार है, उससे अपनी आत्माको भिन्न, शुद्ध और चैतन्यस्वरूप समझता है । और भी-
शरीरं सुखदुःखादि पुत्रपौत्रादिकं तथा ।
अनित्यं कर्मकार्यत्वादस्वरूपमवैति यः ॥ ५१३ ॥
अर्थ — सम्यग्दृष्टी समझता है कि शरीर, सुख, दुःख आदिक पदार्थ और पुत्र, पौत्र आदक पदार्थ अनित्य हैं, ये सब कर्मके निमित्तसे हुए हैं, और इसीलिये ये आत्म स्वरूप नहीं हैं ।