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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । [ १३९ नहीं लगता । पारिशेषानुमानसे ( फलवतात् ) यह बात सिद्ध होती है कि ज्ञानी और अज्ञानीमें बड़ा भारी अन्तर है । इसका कारण वही मोहनीय कर्म है । अज्ञानीके विचार - अज्ञानी कर्मनो कर्मभावकर्मात्मकं च यत् । मनुते सर्वमेवैतन्मोहादद्वैतवादवत् ॥ ५०९ ॥ अर्थ - अज्ञानी जीव, द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म सभीको मोहसे अद्वैतवादकी तरह अर्थात् आत्मासे अभिन्न ही समझता है । और भी- विश्वाद्भिन्नोपि विश्वं स्वं कुर्वन्नात्मानमात्महा । भूत्वा विश्वमयां लोके भयं नोज्झति जातुचित् ॥ ५१० ॥ अर्थ -- आत्माका नाश करनेवाला - अज्ञानी जीव यद्यपि जगसे भिन्न है, तो भी जगत्‌को अपना ही बनाता है और विश्वमय बनकर लोकमें कभी भी भयको नहीं छोडता, वह सदा भयभीत ही बना रहता है । सारांश -- तात्पर्य सर्वतोऽनित्ये कर्मणः पाकसंभवात् । नित्यबुद्ध्या शरीरादौ भ्रान्तो भीतिमुपैति सः ॥ ५११ ॥ अर्थ - उपर्युक्त कथनका सारांश इतना ही है कि अज्ञानी पुरुष कर्मके उदय वश सर्वथा अनित्य शरीर- आदि पदार्थों में नित्यबुद्धि रखकर भ्रम करता हुआ भय करने लगता है । ज्ञानीके विचार सम्यग्दृष्टिः सदैकत्त्वं स्वं समासादयन्निव । यावत्कर्मातिरिक्तत्त्वाच्छुडमत्येति चिन्मयम् ॥ ५१२ ॥ अर्थ- सम्यग्दृष्टी पुरुष सदा अपनेको अकेला ही समझता है और जितना भी कर्मका विकार है, उससे अपनी आत्माको भिन्न, शुद्ध और चैतन्यस्वरूप समझता है । और भी- शरीरं सुखदुःखादि पुत्रपौत्रादिकं तथा । अनित्यं कर्मकार्यत्वादस्वरूपमवैति यः ॥ ५१३ ॥ अर्थ — सम्यग्दृष्टी समझता है कि शरीर, सुख, दुःख आदिक पदार्थ और पुत्र, पौत्र आदक पदार्थ अनित्य हैं, ये सब कर्मके निमित्तसे हुए हैं, और इसीलिये ये आत्म स्वरूप नहीं हैं ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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