________________
पश्चाध्यायी।
[ दूसरा और भी-- लोकोऽयं मे हि चिल्लोको नूनं नित्योस्ति सोऽर्थतः। नाऽपरोऽलौकिको लोकस्ततो भीतिः कुतोऽस्ति मे ॥५१४ ॥
अर्थ--वह समझता है कि लोक यह है ? मेरा तो निश्चयसे आत्मा ही लोक है और वह मेरा आत्मा-लोक वास्तवमें नित्य है । तथा मेरा कोई और अलौकिक लोक नहीं है इसलिये मुझे किससे भय होसक्ता है ? --
निष्कर्ष--
स्वात्मसंचेतनादेवं ज्ञानी ज्ञानकतानतः
इह लोकभयान्मुक्तो मुक्तस्तत्कर्मबन्धनात् ॥५१५॥
अर्थ-ज्ञानमें ही तल्लीन होनेसे ज्ञान चेतना द्वारा ही सम्यग्ज्ञानी इसलोक सम्बन्धी भयसे रहित है और इसीलिये वह कर्म बन्धनसे भी रहित है।
परलोकका भव-- परलोकः परत्रात्मा भाविजन्मान्तरांशभाक् । ततः कम्प इव त्रासो भीतिः परलोकतोऽस्ति सा ॥५१६॥
अर्थ-आगामी जन्मान्तरको प्राप्त होनेवाले–परभव सम्बन्धी आत्माका नाम ही परलोक है। उस परलोकसे-कपाँने वाला दुःख होता है और वही परलोक-भीति कहलाती है।
परलोक भय-- भद्रं चेजन्म स्वलोके माभून्मे जन्म दर्गतौ । इत्याद्याकुलितं चेतः साध्वसं पारलौकिकम् ॥५१७॥
अर्थ-यदि स्वर्ग-लोकमें जन्म हो तो अच्छा है, बुरी गतिमें मेरा जन्म न हो। इत्यादि रीतिसे जो चित्तकी व्याकुलता है उसीका नाम पारलौकिक भय है।
परलोक भयका स्वामी-- मिथ्यादृष्टेस्तदेवास्ति मिथ्याभावैककारणात् ।
तद्विपक्षस्य सदृष्टेर्नास्ति तत्तत्रव्यत्ययात् ।। ५१८॥ ___ अर्थ-मिथ्यादृष्टीके मिथ्या भावोंसे परलोक सम्बन्धी भय होता रहता है, परन्तु सम्यग्दृष्टिके ऐसा भय नहीं होता क्योंकि उसके मिथ्यात्त्व कर्मका उदय नहीं है । कारणके अभावमें कार्य भी नहीं होसक्ता ।
मिथ्यादृष्टिबहिर्दृष्टिरनात्मज्ञो मिथ्यामात्रैकभूमिकः । स्वं समासादयत्यज्ञः कर्म कर्मफलात्मकम् ॥ ५१९ ॥