________________
१३८ ] . पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा अर्थ-इसी कारण सम्यज्ञानी नि:शंक है । यह वात न्यायसे सिद्ध है। सभ्यज्ञानीमें एक देश भी मूर्छा ( ममता-अपनापन ) नहीं है इसलिये शंकाका कारण ही वहां असंभव है।
स्वात्मसंचेतनं तस्य कीदृगस्तीति चिन्त्यते।
येन कर्मापि कुर्वाणः कर्मणा नोपयुज्यते ॥५०३ ॥
अर्थ-उस सम्यज्ञानीकी स्वात्मचेतना (स्वात्मविचार-ज्ञानचेतना ) कैसी विचित्र है, अब उसीका विचार किया जाता है। उसी चेतनाके कारण वह कर्म (कार्य) करता भी है, तो भी उससे तल्लीन नहीं होता।
सात भयोंके नामतत्र भीतिरिहामुत्र लोके वै वेदनाभयम् । चतुर्थी भीतिरत्राणं स्यादगुप्तिस्तु पञ्चमी ॥५०४॥ भीतिः स्याद्वा तथा मृत्यु तिराकस्मिकं ततः। क्रमादुद्देशिताश्चेति सप्तैताः भीतयः स्मृताः ॥५०५॥ अर्थ-पहला-इस लोकका भय, दूसरा-परलोकका भय, तीसरा-वेदना भय, चौथाअरक्षा भय, पांचवां-अगुप्ति भय, छठवां-मरण भय और सातवां-आकस्मिक भय । ये क्रमसे सात-भीति बतलाई हैं।
इस लोककी भीतितत्रेह लोकतो भीतिः क्रन्दितं चात्र जन्मनि । इष्टार्थस्य व्ययो माभून्माभून्मेऽनिष्टसंगमः ॥ ५०६॥
अर्थ-उन सातों भीतियोंमें “मेरे इष्ट पदार्थका तो नाश न हो और मुझे 'अनिष्ट पदार्थका समागम भी न हो ऐसा इस जन्ममें विलाप करना" इस लोक संबंधी पहिली भीति है। .
और भीस्थास्यतीदं धनं नोवा दैवान्माभूद्दरिद्रता ।
इत्याद्याधिश्चिता दग्धुं ज्वलितेवाऽहगात्मनः ॥५०७॥
अर्थ-यह धन ठहरेगा या नहीं, दैवयोगसे दरिद्रता कभी नहीं हो । इत्यादि व्याधिचिता मिथ्यादृष्टीको जलानेके लिये जलती ही रहती है।
निष्कर्षअर्थादज्ञानिनो भीति तिर्न ज्ञानिनः कचित् ।
यतोऽस्ति हेतुतः शेषाद्विशेषश्चानयोर्महान् ॥ ५०८॥ अर्थ-अर्थात् अज्ञानी पुरुषको ही भय लगता है । ज्ञानी पुरुषको थोड़ा भी भय