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पञ्चाध्यायी।
- [ दूसरों
है, उसीका नाम वेदना है । उस आनेवाली वेदनासे पहले ही कंप होने लगता है वही वेदना-भय है अथवा मोहबुद्धिसे विलापका होना भी वेदना भय है । .
उल्लाघोहं भविष्यामि माभून्मे वेदना कचित् । मूच्छैव वेदनाभीतिश्चिन्तनं वा मुहर्मुहुः ॥ ५२५ ॥
अर्थ में नीरोग होनाऊं, मुझे वंदना कभी भी नहीं हो इस प्रकार बार बार चितवन करना ही वेदना--भय है, अथवा मूर्छा ( मोह बुद्धि) ही वेदना भय है ।
वेदना भयका स्वामी-- अस्ति नूनं कुदृष्टेः सा दृष्टिदोषैकहेतुतः। नीरोगस्यात्मनोऽज्ञानान्न स्यात्सा ज्ञानिनः कचित् ॥ ५२६ ॥
अर्थ-वह वेदना भय मिथ्यादर्शनके कारण नियमसे मिथ्यादृष्टीके ही होता है। अज्ञानसे होने वाला कह वेदना--भय सदा नीरोगी ज्ञानीके कभी नहीं होता।
सम्यग्दृष्टिके विचार-- पुद्गलाद्भिन्नचिहानो न मे व्याधिः कुतो भयम् । व्याधिः सर्वा शरीरस्य नाऽमूर्तस्येति चिन्तनम् ॥ ५२७॥
अर्थ-मेरा ज्ञानमय-आत्मा ही स्थान है और वह पुद्गलसे सर्वथा भिन्न है। इसलिये मुझे कोई व्याधि (रोग) नहीं होसकती। फिर मुझे भय किसका ? जितनी भी व्याधियां हैं सभी शरीरको ही होती हैं, अमूर्त-आत्माको एक भी व्याधि नहीं होसक्ती। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि सदा चिन्तवन करता रहता है।
और भी-- यथा प्रज्वलितो वन्हिः कुटीरं दहति स्फुटम् ।
न दहति तदाकारमाकाशमिति दर्शनात् ॥५२८॥
अर्थ-जैसे-बहुत जोरसे जलती हुई अग्नि मकानको जला देती है, परन्तु मकानके आकार में आया हुआ जो आकाश है उसे नहीं जला सक्ती, यह बात प्रत्यक्ष--सिद्ध है।
भावार्थ-जिस प्रकार आकाश अमूर्त पदार्थ है वह किसी प्रकार जल नहीं सक्ता. उसी प्रकार आत्मा भी अमूर्त पदार्थ है उसका भी नाश नहीं होसक्ता । यह सम्यग्दृष्टीका विचार है।
और भी-- स्पर्शनादीन्द्रियार्थेषु प्रत्युत्पन्नेषु भाविषु । नादरो यस्य सोस्त्यर्थानिर्भीको वेदनाभयात् ॥ ५२९ ॥