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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका।
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अर्थ-बालकसे लेकर सभीको उस शुद्धात्माका अनुभव होसक्ता है। परन्तु मिथ्या कर्मके उदयसे जीवोंको अनुभव नहीं होता है ।
भावार्थ-शुद्धात्मवेदन शक्ति सभी आत्माओंमें अनुभूयमान ( अनुभव होने योग्य ) है । परन्तु मिथ्यात्वके उदयसे जीवोंमें उसका अनुभव नहीं होता। क्योंकि मिथ्यावाद उदय उसका बाधक है।
____ शक्तिकी अपेक्षा भेद नहीं हैसम्यग्दृष्टेः कुदृष्टश्च स्वादुभेदोस्ति वस्तुनि । न तत्र वास्तवो भेदो वस्तुसीम्नोऽनतिकमात् ॥ ४९१ ॥
अर्थ--सम्यग्दृष्टी और मिथ्यादृष्टीको वस्तुमें स्वादुभेद होता है परन्तु दोनोंमें वास्तविक भेद कुछ नहीं है। क्योंकि आत्मायें दोंनोंकी समान हैं। वस्तु सीमाका उल्लंघन कमी
नहीं होता।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टी वस्तुका स्वरूप जानता है। परन्तु मिथ्यादृष्टि उस वस्तुको जानकर मिथ्यादर्शनके उदयसे उसमें इष्ट–अनिष्ट बुद्धि रखता है । इतना ही नहीं किन्तु मिथ्यात्त्व बश वस्तुका उलटा ही बोध करता है । इस प्रकार सम्यग्दृष्टी और मिथ्यादृष्टीके वस्तु स्वादमें भेद है । परन्तु वास्तवमें उन दोनोंमें कोई भेद नहीं । दोनोंकी आत्मायें समान हैं और दोनों ही अनन्त गुणोंको धारण करनेवाले हैं। केवल पर-निमित्तसे भेद होगया है।
अत्र तात्पर्यमेवैतत्तत्त्वैकत्त्वेपि यो भ्रमः। - शङ्कायाः सोऽपराधोऽस्ति सातु मिथ्योपजीविनी ॥ ४९२॥
अर्थ---यहां पर तात्पर्य इतना ही है कि तत्त्व (सम्यग्दृष्टी और मिथ्यादृष्टी) दोनोंकी आत्माओंके समान होने पर तथा विषयभूत पदार्थके भी एक होने पर जो मिथ्यादृष्टीको भ्रम होता है वह शंकाका अपराध है, और वह शंका मिथ्यात्वसे होनेवाली है।
शङ्काकार-- ननु शङ्काकृतो दोषो यो मिथ्यानुभबो नृणाम्।
सा शङ्कापि कुतो न्यायादस्ति मिथ्योफ्जीविनी ॥ ४९३ ॥
अर्थ-शङ्काकार कहता है कि जो मनुष्योंको मिथ्या अनुभव होता है वह शकाले होने वाला दोष है । बह शक्का भी किस न्यायसे मिथ्यात्वसे होनेवाली है ?
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उत्तर-- अत्रोत्तर कुदृष्टियः स सप्तभिर्भपैर्युतः।। नापि स्पृष्टः सुदृष्टियः स सप्तभिर्भयैर्मनाक ॥ ४९४ ।।