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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका। भावार्थ-जो २ पदार्थ हमारे सामने नहीं हैं, उन पदार्थों में अपनी अल्पज्ञताके कारण हम शंका करने लगते हैं और इसी लिये सर्वज्ञकथित--आगममें अश्रद्धा कर बैठते हैं। परन्तु ऐसा करना नितान्त भूल है । ऐसा करनेसे हम स्वयं आत्माको ठगते हैं तथा दूसरोंको हानि पहुंचाते हैं । यह क्या नासमझी नहीं है कि जो पदार्थ हमारे दृष्टिगत नहीं हैं, अथवा जो हमारी बुद्धिसे बाहर हैं वे हैं ही नहीं । यदि विशेष बुद्धिमान हैं तो हमें निर्णय करनेका प्रयत्न करना चाहिये अन्यथा आज्ञा प्रमाण ही ग्रहण करना चाहिये । यथा
___ सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नैव हन्यते ।
आज्ञा सिद्धं च तन्द्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥ . अर्थ-जिनेन्द्र भगवान्से कहा हुआ पदार्थ सूक्ष्म है उस तत्त्वका हेतुओंद्वारा खण्डन नहीं हो सक्ता, इस लिये आज्ञा प्रमाण ही उसे ग्रहण करना चाहिये । जिनेन्द्र देव (सर्वज्ञ वीतरागी ) अन्यथावादी नहीं है। उपर्युक्त कथनानुसार दृढ़प्रतीति करना ही सम्यग्दर्शनका चिन्ह है।
सूक्ष्म पदार्थतत्र धर्मादयः सूक्ष्माः सूक्ष्माः कालाणवोऽणवः
अस्ति सूक्ष्मत्त्वमेतेषां लिङ्गस्या:रदर्शनात् ॥ ४८३ ॥
अर्थ-धर्म द्रव्य, आदिक पदार्थ सूक्ष्म हैं, कालाणु भी सूक्ष्म हैं और पुद्गल --परमाणु भी सूक्ष्म हैं । इनका हेतु [ जतलानेवाला कोई चिन्ह (हेतु; ] इन्द्रियोंसे नहीं दीखता इसलिये ये सूक्ष्म हैं।
अन्तरित और दूरार्थअन्तरिता यथा द्वीपसरिन्नाथनगाधिपाः। दूरार्था भाविनोतीता रामरावणचक्रिणः ॥ ४८४ ॥
अर्थ-द्वीप, समुद्र, पर्वत आदि पदार्थ अंतरित हैं क्योंकि इनके बीचमें बहुतसी चीजें आगई हैं इसलिये ये दीख नहीं सकते । तथा राम, रावण, चक्रवर्ती ( बलभद्र अर्धचक्री चक्री ) जो हो गये हैं और जो होने वाले हैं वे दूरार्थ ( दूरवर्ती पदार्थ ) कहलाते हैं।
मिथ्याहीष्ट सदा संदिग्ध ही रहता हैन स्यान्मिथ्यादृशो ज्ञानमेतेषां काप्यसंशयम् ।
संशयस्यादिहेतोर्व दृङ्मोहस्योदयात्सतः ॥ ४८५ ॥
अर्थ----इन सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थोंका संशय रहित ज्ञान मिथ्यादृष्टिको कभी नहीं होसक्ता क्योंकि संशयका मूल कारण दर्शनमोहनीयका उदय है और वह उसके मौजूद है।