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पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा
शङ्काकार
ननु तद्दर्शनस्यैतल्लक्ष्यस्यस्यादशेषतः । किमथास्त्यपरं किञ्चिल्लक्षणं तद्वदाद्यनः ॥ ४७७ ॥
अर्थ - शङ्काकार कहता है कि सम्यग्दर्शनका सम्पूर्ण लक्षण इतना ही है कि और भी कोई लक्षण है ? यदि है तो आज हमसे कहिये ?
उत्तर
सम्यग्दर्शनमष्टाङ्गमस्ति सिद्धं जगत्रये ।
लक्षणं च गुणश्चाङ्गं शब्दाचैकार्थवाचकाः ॥ ४७८ ॥
अर्थ — सम्यग्दर्शन के सब जगह आठ अंग प्रसिद्ध हैं । तथा लक्षण, गुण, अंग ये सभी शब्द एक अर्थ ही कहने वाले हैं ।
आठों अङ्गों के नाम
निःशङ्कितं यथा नाम निष्कांक्षितमतः परम् । विचिकित्सावर्जे चापि तथा दृष्टेरमूढ़ता ॥ ४७९ ॥ उपबृंहणनामा च सुस्थितीकरणं तथा
वात्सल्यं च यथाम्नायाद् गुणोप्यस्ति प्रभावना ॥ ७८० ॥ अर्थ — निःशङ्कित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग कमसे परम्परा - आगत हैं ।
निःशंकित गुणका लक्षण --
शङ्का भीः साध्वसं भीतिर्भयमेकाभिधा अमी ।
तस्य निष्क्रान्तितो जातो भावो निःशङ्कितोऽर्थतः ॥ ४८१ ॥
अर्थ — शंका, भी, साध्वस, भीति, भय ये सभी शब्द एक अर्थके वाचक हैं । उस शंका अथवा भयसे रहित जो आत्माका परिणाम है, वही वास्तव में निःशंकित भाव कहलाता है।
निःशंकित भाव
अर्थवशादत्र सूत्रे शंका न स्यान्मनीषिणाम् । सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः स्युस्तदास्तिक्यगोचराः ॥ ४८२ ॥
अर्थ — जैन सिद्धान्त में ( किसी सूत्र में ) प्रयोजन वश बुद्धिमानोंको शंका नहीं करना चाहिये। जो पदार्थ सूक्ष्म हैं, जो अन्तरवाले हैं, अर्थात् जो बीचमें अनेक व्यवधान होनेसे दृष्टिगत नहीं है और जो कालकी अपेक्षा बहुत दूर हैं, वे सब निःशङ्करीतिसे आस्तिक्य गोचर (दृढ - बुद्धिगत) होने चाहिये ।