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पञ्चाध्यायी।
। दसरा
ये उपलक्षण हैंउक्तगाथार्थसूत्रेपि प्रशमादिचतुष्टयम् ।।
नातिरिक्तं यतोस्त्यत्र लक्षणस्योपलक्षणम् ॥ ४६७॥
अर्थ-ऊपर कहे हुए गाथा-सूत्रमें भी प्रशम, संवेगादिक चारों ही आगये हैं। ये सभी पञ्चाध्यायीमें कहे हुए प्रशमादिक चारोंसे भिन्न नहीं हैं। किन्तु कोई लक्षण रूपसे कहे गये हैं, और कोई उपलक्षण ( लक्षणका लक्षण ) रूपसे कहे गये हैं अर्थात् ग्रन्थान्तरमें और इस कथनमें कोई भेद नहीं है। दोनों एक ही वातको कहने वाले हैं।
उपलक्षणका लक्षणअस्त्युपलक्षणं यत्तल्लक्षणस्यापि लक्षणम् ।
तत्तथाऽस्यादिलक्ष्यस्य लक्षणं चोत्सरस्य तत् ॥ ४६८॥ . अर्थ-लक्षणके लक्षणको उपलक्षण कहते हैं अर्थात् किसी वस्तुका एक लक्षण कहाजाय, फिर उस लक्षणका लक्षण कहाजाय, इसीका नाम ( जो दुवारा कहा गया है ) उपलक्षण है। जो पहले लक्ष्य ( जिसका लक्षण कियाजाय उसे लक्ष्य कहते है ) का लक्षण है वही आगे वालेका उपलक्षण है।
प्रकृतमेंयथा सम्यक्त्वभावस्य संवेगो लक्षणं गुणः। ।
सचोऽपलक्ष्यते भक्तिवात्सल्येनाऽथवाहताम् ॥ ४६९ ॥
अर्थ-जिस प्रकार सम्यग्दर्शनका संवेग गुण लक्षण है, वही संवेगगुण अरहन्तोंकी भक्ति अथवा वात्सल्यका उपलक्षण हो जाता है।
__ भक्ति और वात्सल्यका स्वरूपतत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसां शमात् ।
वात्सल्यं तद्गुणोत्कर्षहेतवे सोद्यतं मनः॥४७०॥
अर्थ-मन, वचन, कायकी शान्तिसे उद्धत्ताका नहीं होना ही भक्ति है। अर्थात् किसीके प्रति मन, वचन, काय द्वारा किसी प्रकारकी उद्धत्ता प्रगट नहीं करना ही उसीकी भक्ति है और किसीके गुणोत्कर्षकी प्राप्तिके लिये मनमें उल्लास होना ही उसके प्रति वात्सल्य कहलाता है।
भक्तिर्वा नाम वात्सल्यं न स्यात्संवेगमन्तरा।
स संवेगो दृशो लक्ष्म द्वावेतावुपलक्षणम् ॥ ४७१ ॥
अर्थ-भक्ति अथवा वात्सल्य संवेगके विना नहीं हो सक्ते, वह संवेग सम्यग्दर्शनका लक्षण है और ये दोनों ( भक्ति वात्सल्य ) उपलक्षण हैं।