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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
स्वानुभव रूप आस्तिक्य परम गुण हैस्वात्मानुभूतिमात्रं स्यादास्तिक्यं परमो गुणः ।
भवेन्मा वा परद्रव्ये ज्ञानमात्रं परत्वतः ॥ ४६३ ॥
अर्थ-स्वात्मानुभव स्वरूप जो आस्तिवय है वही परम गुण है। वह आस्तिक्य पर द्रव्यमें हो, चाहे न हो । पर पदार्थ, पर है, इसलिये उसका प्रत्यक्ष न होकर केवल, ज्ञानमात्र ही होता है।
अपि तत्र परोक्षत्त्वे जीवादौ परवस्तुनि । गाढं प्रतीतिरस्याऽस्ति यथा सम्यग्दृगात्मनः ॥ ४६४॥
अर्थ-यद्यापि स्वानुभव-आस्तिक्यवाले पुरुषके जीवादिक पर पदार्थ परोक्ष हैं। तथापि उसके उन पदार्थों में गाढ़ प्रतीति है। जिस प्रकार-सम्यग्दृष्टिकी अपनी आत्मामें गाढ़ प्रतीति है, उसी प्रकार अन्य परोक्ष पदार्थों में भी गाढ़ प्रतीति है।
परन्तु. न तथास्ति प्रतीतिर्वा चास्ति मिथ्यादृशः स्फुटम् । • दृङ्मोहस्योदयात्तत्र भ्रान्तेदृङ्मोहतोऽनिशम् ॥ ४६५ ॥
अर्थ-परन्तु वैसी प्रतीति मिथ्यादृष्टिके कभी नहीं होती। क्योंकि उसके दर्शनमोहनीयका उदय है । दर्शनमोहनीयके निमित्तसे निरन्तर मिथ्यादृष्टिको पदार्थोंमें भ्रम-बुद्धि रहा करती है।
निष्कर्षततः सिडमिदं सम्यक् युक्तिस्वानुभवागमात् ।
सम्यक्त्वेनाविनाभूतमस्त्यास्तिक्यं गुणो महान् ॥ ४६६ ॥
अर्थ-इसलिये यह वात-युक्ति, स्वानुभव और आगमसे भली भांति सिद्ध होचुकी कि सम्यग्दर्शनके साथ होनेवाला जो आस्तिक्य है वही महान् गुण है । ग्रन्थान्तरमें सम्यक्त्वके आठ गुण भी बतलाये हैं । वे नीचे लिखे जाते हैं
ग्रन्थान्तर*संवेओ णिव्वेओ जिंदणगरुहा य उवसमो भत्ती।
वच्छल्लं अणुकंपा अगुणा हुंति सम्मत्ते ॥ ४ ॥
अर्थ-संवेग, निर्वेग, निन्दा, गर्दा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य, अनुकम्पा ये आठ गुण सम्यक्त्व होने पर होते हैं।
*यह गाथा पञ्चध्याय में क्षेपक रूपसे आई है । उ० १७