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: अध्याय । ]
सुबोधिनीटीका।
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प्रशम
दृङ्मोहस्योदयाभावात् प्रसिद्धः प्रशमो गुणः।
तत्राभिव्यञ्जकं वाद्यानिन्दनं चापि गर्हणम् ॥ ४७२॥
अर्थ--दर्शनमोहनीय कर्मके उदयका अभाव होनेसे प्रशम गुण होता है यह प्रसिद्ध है। उसी प्रशम गुणका बाह्य-व्यंजक (बतानेवाला) निंदन है, और उसीका गर्हण है अर्थात् निन्दन और गर्हणसे प्रशम गुण जाना जाता है ।
निन्दन-- निन्दनं लत्र दुर्षाररागादौ दुष्टकमणि ।
पश्चात्तापकरो बन्धो नाऽपेक्ष्यो नाप्युपेक्षितः ॥ ४७३ ॥
अर्थ- कठिनतासे दूर करने योग्य जो रागादि दुष्ट कर्म हैं उनके विषयमें ऐसा विचार करना कि इनके होनेपर पश्चात्तापकारी बन्ध होता है । वह न तो अपेक्षणीय है और न उपेक्षणीय है अर्थात् रागादिको बन्धका कारण समझकर उनके विषयमें रागबुद्धिको दूर कर उन्हें हटानेका प्रयत्न करना चाहिये इसीका नाम निंदन है।
गर्हणगर्हणं तत्परित्यागः पश्चगुत्मसाक्षिकः। निष्प्रमादतया नूनं शक्तितः कर्महानये ॥ ४७४ ॥
अर्थ-पञ्चगुरुओंकी साक्षीसे कर्मोका नाश करनेके लिये शक्तिपूर्वक प्रमाद रहित होकर उस रागका त्याग करना-गर्हण कहलाता हैं।
अर्थादेतव्यं सूक्तं सम्यक्त्वस्योपलक्षणम । प्रशमस्य करायाणामनुद्रेकाऽविशेषतः॥ ४७५ ॥
अर्थ-कषायोंके अनुदयसे होनेवाले प्रशम गुण-लक्षणका धारी जो सम्यक्त्व है उसके ये दोनों उपलक्षण हैं । इन दोनों (निन्दन-गर्हण)का स्वरूप ऊपर अच्छी तरह कहा जाचुका है।
ग्रन्थकारकी लघुता-- शेषमुक्तं यथाम्नायात् ज्ञातव्यं परमागमात् ।
आगमाब्धेः परं पारं मादृग्मन्तुं क्षमः कथम् ॥ ४७६ ॥
अर्थ-बाकीका जो कथन है, वह निर्दिष्ट पद्धतिके अनुसार अर्थात् परम्परासे आये हुए परमागम (शास्त्र )से जानना चाहिये । आगम रूपी समुद्रका पार बहुत लम्बा है, इसलिये उसके पार जानेके लिये हम सरीखे कैसे तयार होसक्ते हैं ?