________________
१२८]
पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा
सारांश-- इत्यायनादिजीवादि वस्तुजातं यतोऽखिलमू । निश्चयव्यवहाराभ्यां आस्तिक्यं तत्तथामतिः ॥ ४५८ ॥
अर्थ-इस प्रकार अनादि कालसे चला आया जितना भी जीवादिक वस्तु समूह है, समी निश्चय और व्यवहारसे भिन्न भिन्न स्वरूपको लिये हुए है। उसमें वैसी ही बुद्धि रखना जैसा कि वह है, इसीका नाम आस्तिक्य है।
सम्यक् और मिथ्या आस्तिक्यसम्यक्त्वेनाविनाभूतस्वानुभूत्यैकलक्षणम् ।
आस्तिक्यं नाम सम्यक्त्वं मिथ्यास्तिक्यं ततोऽन्यथा ॥४५९॥ अर्थ-सम्यग्दर्शनकी अविनाभाविनी स्वानुभूतिके साथ होनेवाला जो आस्तिक्य है वही सम्यक् अस्तिक्य है अथवा सम्यक्त्व है। उससे विपरीत (स्वानुभूतिके अभावमें होनेवाला ) जो अस्तिक्य है वह मिथ्या-आस्तिक्य है अथवा मिथ्यात्त्व है।
शङ्काकारननु वै केवलज्ञाममेकं प्रत्यक्षमर्थतः । न प्रत्यक्षं कदाचित्तच्छेषज्ञानचतुष्टयम् ॥ ४६० ॥ यदि वा देशतोऽध्यक्षमाक्ष्यं स्वात्मसुखादिवत् । स्वसंवेदनप्रत्यक्षमास्तिक्यं तत्कुतीर्थतः ॥ ४६१॥
अर्थ-शङ्काकार कहता है कि वास्तवमें एक केवलज्ञान ही प्रत्यक्ष है बाकीके चारों ही ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हैं । वे सदा परोक्ष ही रहते है ? अथवा इन्द्रियजन्य ज्ञान भी यदि एक देश प्रत्यक्ष है, जिस प्रकार कि सुखका मानसिक प्रत्यक्ष होता है । तो वास्तवमें आस्तिक्य स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कैसे हो सक्ता है ?
उत्तर--
सत्यमाद्यवयं ज्ञानं परोक्षं परसंविदि । प्रत्यक्षं स्वानुभूतौ तु दृङ्मोहोपशमादितः ॥ ४६२ ॥
अर्थ-यह बात ठीक है कि आदिके दोनों ज्ञान (मति-श्रुत ) परोक्ष हैं परन्तु वे फर- पदार्थका ज्ञान करनेमें ही परोक्ष हैं, स्वात्मानुभव करनेमें वे भी प्रत्यक्ष हैं। क्योंकि स्वात्मानुभव दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय, क्षयोपशमसे होता है। दर्शनमोहनीय कर्म ही स्वानुभूतिके प्रत्यक्ष होने में बाधक है और उसका अभाव ही साधक है।