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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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अर्थ - क्रियामात्रको धर्म नहीं कहते हैं । मिथ्यादृष्टि पुरुषके सदा रागादिभावका सद्भाव होनेसे उसकी क्रियाको वास्तव में अधर्म ही कहना चाहिये ।
रागी और वैरागी -
नित्यं रागी कुदृष्टिः स्यान्न स्यात्कचिदरागवान् । अस्तरागोऽस्ति सदृष्टिर्नित्यं वा स्यान्न रागवान् ॥ ४४५ ॥ अर्थ – मिथ्यादृष्टि पुरुष सदा रागी है, वह कहीं भी राग रहित नहीं होता परन्तु सम्यग्दृष्टिका राग नष्ट होजाता है । वह रागी नहीं है, किन्तु वैरागी है ।
अनुकम्पाका लक्षण ---
अनुकम्पा क्रिया ज्ञेया सर्वसत्वेष्वसुग्रहः ।
मैत्री भावोऽथ माध्यस्थं नैःशल्यं वैरवर्जनात् ॥ ४४६ ॥
अर्थ – सम्पूर्ण प्राणियों में उपकार बुद्धि रखना अनुकम्पा (दया) कहलाती है अथवा सम्पूर्ण जीवों में मैत्री भाव रखना भी अनुकम्पा है । अथवा द्वेषबुद्धिको छोड़कर मध्यमवृत्ति धारण करना भी अनुकम्पा है । अथवा शत्रुता छोड देनेसे सम्पूर्ण जीमें शल्य रहित (निष्कषाय) हो जाना भी अनुकम्पा है ।
अनुकम्पाके होनेका कारण
दृङ्मोहानुदयस्तत्र हेतुर्वाच्योऽस्ति केवलम् ।
मिथ्याज्ञानं विना न स्याद्वैरभावः कश्चिद्यतः ॥ ४४७ ॥
अर्थ- सम्पूर्ण जीवोंमें दयारूप परिणाम होने में कारण केवल दर्शनमोहनीय उदयका न होना ही है । क्योंकि मिथ्या ज्ञानको छोड़कर कहीं भी वैरभाव नहीं होता है । भावार्थ - ज्ञान, दर्शनका अविनाभावी है । जैसा दर्शन होता है, वैसा ही ज्ञान होजाता है | दर्शनमें सम्यक् विशेषण लगनेसे ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान होजाता है, और दर्शनमें मिथ्या विशेषण लगनेसे ज्ञान भी मिथ्या ज्ञान होजाता है | दर्शनमोहनीय, सम्यग्दर्शन को नष्ट कर मिथ्यादर्शन बना देता है । उस समय ज्ञान भी उल्टा ही विषय करने लगता है । जिस समय आत्मामें मिथ्या ज्ञान होता है, उसी समय जीवोंमें वैरभाव होने लगता है, ऐसा वैरभाव मिथ्यादृष्टिमें ही पाया जाता हैं ।
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मिथ्या ज्ञान
मिथ्या यत्वरतः स्वस्य स्वस्माद्वा परजन्मिनाम् ।
इच्छेस सुखदुःखादि मृत्युर्वा जीवितं मनाक् ॥ ४४८ ।।
अर्थात् — दूसरे जीवों में सुखदुःखादिक अथवा जीना मरना देख कर, उनसे अपने में