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अध्याय।
सुबोधिनी टीका।
अनुरागका शब्दार्थअत्रानुरागशब्देन नाभिलाषो निरुच्यते । किन्तु शेषमधर्मादा निवृत्तिस्तत्फलादपि ॥४३४ ॥
अर्थ-यहां पर अनुराग शब्दसे अभिलाषा अर्थ नहीं लेना चाहिये किन्तु दूसरा ही अर्थ लेना चाहिये अर्थात् गुणप्रेम अनुराग शब्दका अर्थ है अथवा अधर्म और अधर्मके फलसे निवृत्ति होना भी अनुराग शब्दका अर्थ है।
___ और भीअथानुरागशब्दस्य विधिर्वाच्यो यदार्थतः । प्राप्तिः स्यादुपलब्धिर्वा शब्दाश्चैकार्थवाचकाः ॥ ४३५ ॥
अर्थ-जिस समय अनुराग शब्दका विधिरूप अर्थ करना हो, तब प्राप्ति, उपलब्धि ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक होते हैं । भावार्थ-विधिरूप अर्थ करने पर अनुरागका अर्थ, गुणोंकी प्राप्ति और गुणोंकी उपलब्धि समझना चाहिये ।
आशङ्कानचाऽशङ्कयं निषिद्धः स्यादभिलाषो भोगेष्वलम् ।
शुद्धोपलब्धिमात्रेपि हि यो भोगाभिलाषवान् ॥ ४३६ ॥ * अर्थ-ऐसी आशङ्का नहीं करना चाहिये कि अभिलाषाका निषेध केवल भोगोंके विषयमें ही कहागया है। शुद्धोपलब्धि होने पर भी जो भोगोंमें अभिलाषा रखता हो उसीकी अभिलाषाका निषेध किया गया है, ऐसा भी नहीं समझना चाहिये।
अभिलाषामात्र निषिद्ध हैअर्थात्सर्वोभिलाषः स्यादज्ञानं विपर्ययात् । न्यायादलब्धतत्त्वार्थों लब्धं कामो न लब्धिमान् ॥ ४३७ ॥
अर्थ-सभी अभिलाषायें अज्ञानरूप (बुरी) हैं क्योंकि सभी मिथ्यात्वसे होती हैं। न्यायसे यह बात सिद्ध है कि जिसने तत्त्वार्थको नहीं जाना है उसे चाहनेकी इच्छा होने पर भी पदार्थ नहीं मिलता है।
और भीमिथ्या सर्वोभिलाषः स्यान्मिथ्याकर्मोदयात्परम् । स्वार्थसार्थक्रियासिद्धौ नालं प्रत्यक्षतो यतः॥ ४३८ ॥
अर्थ-सम्पूर्ण अभिलाषायें मिथ्या हैं। क्योंकि सभी मिथ्यात्वकर्मके उदयसे होनेवाली हैं। तथा कोई भी अभिलाषां अपने अभीष्ट क्रियाकी सिद्धि करानेमें समर्थ नहीं है क्योंकि यह बात प्रत्यक्ष है।