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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
सम्यग्दृष्टिके और भी गुण-- गुणाश्चान्ये प्रसिद्धा ये सदृष्टेः प्रसादयः।
कर्सिट्या यथास्वं ते सन्ति सम्यक्त्वलक्षमः ॥ ४२४ ॥
अर्थ-और भी प्रशमादिक जो सम्यग्दृष्टिके प्रसिद्ध गुम हैं, वे सब बाह्य दृष्टिसे ही सम्यक्त्वके लक्षण हैं। यदि वे सम्यग्दर्शनके अविनाभावी हैं तो लक्षण हैं, अन्यथा नहीं।
___ सम्यग्दृष्टिके गुणोंके नामतत्राद्यः प्रशमो नाम संवेगश्च गुणक्रमात् ।
अनुकम्पा तथास्तिक्यं वक्ष्ये तल्लक्षणं यथा ॥ ४२५ ॥
अर्थ-सम्यग्दृष्टिका पहला गुण प्रशम है दूसरा संवेग है, तीसरा अनुकम्मा है और चौथा आस्तिक्य है । इन चारोंका क्रमसे लक्षण कहते हैं।
प्रशमका लक्षणप्रशमी विषयेषूचे वक्रोधादिकेषु च ।
लोकासंख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ॥ ४२६ ॥ • अर्थ–पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी विषयोंमें और असंख्यात लोक प्रमाण क्रोधादिक भावोंमें स्वभावसे ही मनकी शिथिलताका होना प्रशम ( शान्ति ) कहलाता है भावार्थ-विषय क्रोधादिकमें मनकी प्रवृत्तिका न होना ही प्रशम है।
___ प्रशमका दूसरा लक्षणसद्यः कृताऽपराधेषु यदा जीवेषु जातुचित् । तद्वाधादि विकाराय न बुद्धिः प्रशमो मतः ॥ ४२७ ॥
अर्थ-जिन जीवोंने अपने साथमें कोई नवीन अपराध किया हो उन जीवोंके विषयमें कभी भी मारने आदि विकारकी बुद्धिका न होना भी प्रशम है। भावार्थ-अपराधी जीवों पर क्षमाभाव रखना भी प्रशम है ।
प्रशम होनेका कारणहेतुस्तत्रोदयाभावः स्यादनन्तानुबन्धिनाम् ।
अपि शेषकषायाणां नूनं मन्दोक्योंशतः ॥ ४२८ ॥
अर्थ-अपराधी जीवों पर भी क्षमाभाव करनेकी बुद्धि क्यों होती हैं ? इसका कारण अक्तानुबन्धि कषायका उदय न होना और अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याश्यानावरण कषायोंका कुछ मन्दोदय होना ही है ।