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१२२ ] पञ्चाध्यायी।
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और भीआरम्भादि क्रिया तस्य दैवादा स्यादकामतः ।
अन्तः शुद्धेः प्रसिद्धत्वान्न हेतुः प्रशमक्षतेः॥४२९ ॥
अर्थ-दैवयोगसे (चारित्र मोहनीयके उदयसे) यदि सम्यग्दृष्टी विना इच्छाके आरम्भ आदि क्रिया भी करै तो भी अन्तरंगमें शुद्धता होनेसे वह क्रिया उसके प्रशम गुणके नाशका कारण नहीं हो सक्ती।
___ प्रशम और प्रशमाभाससम्यक्त्वेनाविनाभूतः प्रशमः परमो गुणः ।
अन्यत्र प्रशमम्मन्योऽप्याभासः स्यात्तदत्ययात् ॥ ४३०॥
अर्थ-सम्यग्दर्शनके साथ यदि प्रशम हो तब तो वह उत्कृष्ट गुण समझा जाता है और यदि सम्यग्दर्शनके विना ही प्रशम हो, तो वह प्रशम नहीं है, किन्तु प्रशामाऽऽभास और प्रशम मानना मात्र है । सम्यग्दर्शनके अभावमें प्रशम गुण कभी नहीं कहलाता।
संवेगका लक्षणसंवेमः परमोत्साहो धर्म धर्मफले चितः। .
सधर्मेष्वनुरागो पा प्रीतिर्वा परमेष्टिषु ॥ ४३१ ॥
अर्थ-आत्माके धर्म और धर्मके फलमें पूरा उत्साह होना संवेग कहलाता है । अथवा समान धर्मियोंमें अनुराग करना अथवा पांचों परमेष्ठियों में प्रेम करना भी संवेग कहलाता है।
धर्म और धर्मका फलधर्मः सम्यक्त्वमात्रात्मा शुद्धस्यानुभवोऽथवा ।
तत्फलं सुखमत्यक्षमक्षयं क्षायिकं च यत् ॥ ४३२ ॥
अर्थ-सम्यक्त्वस्वरूप-आत्मा ही धर्म कहलाता है अथवा शुद्धात्माका अनुभव होना ही धर्म है और अतीन्द्रिय, अविनाशी क्षायिक सुख ही धर्मका फल कहलाता है।
समान घर्मियोंमें अनुरागइतरत्र पुना रागस्तद्गुणेष्वनुरागतः। नातद्गुणेऽनुरागोपि तत्फलस्याप्यलिप्सया ॥ ४३३ ॥
अर्थ—समान धर्मियोंमें जो प्रेम बतलाया है वह केवल उनके गुणोंमें अनुरागबुद्धिसे होना चाहिये । जिनमें गुण नहीं है, उनमें फलकी इच्छा न रखते हुए भी अनुराग नहीं होना चाहिये।