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पश्चाध्यायी।
[ दूसरी अर्थ-स्पर्शादि विषयोंको प्राप्त होकर यह जीव ही स्वयं ज्ञान और सुख मय होजाता है। उस ज्ञान और सुखके विषयमें ये स्पर्शादिक पदार्थ-जड़ बिचारे क्या कर सकते हैं।
. जड़ पदार्थ ज्ञानके उत्पादक नहीं हैं-- . अर्थाः स्पर्शादयः स्वैरं ज्ञानमुत्पादयन्ति चेत् ।
घरादी ज्ञानशून्ये च तत्किं नोत्पादयन्ति ते ॥ ३५४॥ ___ अर्थ-यदि स्पर्शादिक अचेतन पदार्थ ही स्वयं ज्ञानको पैदा करदेवे तो ज्ञानसत्व घटादिक पदार्थों में क्यों नहीं उत्पन्न करते ? अर्थात् आत्मामें ही ज्ञान क्यों होता है ? *
अथ चेच्चेतने द्रव्ये ज्ञानस्थोत्पादकाः कचित् ।
चेतनत्वात्स्वयं तस्य किं तत्रोत्पादयन्ति वा ॥ ३०५॥ .. अर्थ-वदि यह कहा जावै कि स्पर्शादिक ज्ञानको पैदा करते हैं, परन्तु चेतन द्रव्यमें ही पैदा करते हैं ? तो चेतन द्रव्य तो स्वयं ज्ञान रूप है, वहां उन्होंने पैदा क्या किया ?
सारांशततः सिद्ध शरीरस्य पञ्चाक्षाणां तदर्थसात् ।
अस्त्यकिञ्चित्करत्वं तचितो ज्ञानं सुखम्प्रति ।। ३५६ ॥
अर्थ-इसलिये यह बात सिद्ध होगई कि शरीर और पांचों ही इन्द्रियां आत्माके ज्ञान और सुखके प्रति सर्वथा अकिञ्चित्कर हैं, अर्थात् कुछ नहीं कर सक्ते ।
पुनः शङ्काकार-- .. मनु देहन्द्रियार्थेषु सत्सु ज्ञानं सुखं नृणाम् ।
असत्सुन सुखं ज्ञानं तदकिश्चित्करं कथम् ॥ ३५७ ॥ । ___ अर्थ-शङ्काकार कहता है कि मनुष्योंके शरीर इन्द्रिय और पदार्थके रहते हुए ही ज्ञान और सुख होता है । विना शरीरादिकके ज्ञान और मुख नहीं होता। फिर शरीर, इन्द्रिय और पदार्थ, ज्ञान और सुखके प्रति अकिञ्चित्कर ( कुछ भी नहीं करने वाले ) क्यों हैं ?
उत्तरनै यतोन्वयापेक्षे व्यञ्जके हेतुदर्शनात् । कार्याभिव्यञ्जकः कोपि साधनं न विनान्वयम् ॥ ३५८ ॥ शङ्काकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है। क्योंकि शरीरादिकको जो ज्ञानादिकके
* बौद्ध सिद्धान्त ज्ञानोत्पत्तिमें पदार्थको ही कारण मानता है, उसीका खण्डन इस श्लोकद्वारा किया गया है। कोई२ तो जड़ पदार्थको ही ज्ञानोत्पादक मानते है. उनका भी खण्डन समझना चाहिये।