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पञ्चध्याय ।
[ दूसरी
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भावार्थ - जो व्याप्ति दोनों तरफसे होती है उसे समव्याप्ति कहते हैं । जैसे जहां २ अचेतनपना है वहां २ जड़पना है । और जहां २ जड़पना है वहां २ अचेतनपना है । तथा एक तरफ से ही सम्बन्ध रखती है वह विषमव्याप्ति कहलाती है । जैसे- जहां २ " धूंआ होता है वहां २ अग्नि होती है, और जहां २ अग्नि होती है वहां २ धूंआ होता भी है नहीं भी होता । जलते हुए कोयलोंमें अग्नि तो है परन्तु धूंआ नहीं है । इसलिये धूंआकी व्याप्ति तो अग्निके साथ है अर्थात् धूंआ तो अग्निके विना नहीं रहता । परन्तु अग्निकी धूंएके साथ व्याप्ति नहीं है । ऐसी व्याप्ति इक तरफा व्याप्ति ( विषम ) कहलाती है ।
प्रकृत में स्वानुभूतिकी दो अवस्थायें हैं एक तो क्षयोपशम ज्ञान ( लब्धि) रूप अवस्था दूसरी उपयोगात्मक ज्ञान रूप अवस्था | उपयोगात्मक ज्ञान कभी २ होता है । प्रत्येक समय उपयोग नहीं होता है परन्तु क्षयोपशम रूप ज्ञान सदा रहता है । इसलिये क्षयोपशमरूप स्वानुभवकी तो सम्यक्त्वके साथ समव्याप्ति है । सम्यक्त्वके होने पर क्षयोपशमरूप स्वानुभव होता है, और क्षयोपशमरूपस्वानुभव के होनेपर सम्यक्त्व होता है । सम्यक्त्वके होने पर उपयोगात्मक स्वानुभव हो भी जाय और नहीं भी हो, नियम नहीं । हां उपयोगात्मक स्वानुभवके होते हुए अवश्य ही सम्यग्दर्शनकी प्रकटता है इसलिये यह चिषम व्याप्ति है ।
इसीका खुलासा
तद्यथा स्वानुभूतौ वा तत्काले वा तदात्मनि ।
अस्त्यवश्पं हि सम्यक्त्वं यस्मात्सा न विनापि तत् ॥ ४०५ ॥ अर्थ — जिस आत्मामें जिस कालमें स्वानुभूति है, उस आत्मामें उस समय अवश्य
ही सम्यक्त्व है क्योंकि बिना सम्यक्त्वके स्वानुभूति हो नहीं सक्ती ।
यदि वा सति सम्यक्त्वे स स्याद्वा नोपयोगवान् । शुद्धस्यानुभवस्तत्र लब्धिरूपोस्ति वस्तुतः ॥ ४०६ ॥
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अर्थ — अथवा सम्यग्दर्शन के होनेपर शुद्धात्माका उपयोगात्मक अनुभव हो भी, और नहीं भी हो । परन्तु सम्यक्त्वके होनेपर स्वानुभवाऽऽवरण कर्म ( मतिज्ञानावरण ) का क्षयोपशम रूप (लब्धि ) ज्ञान अवश्य है ।
लब्धि रूप ज्ञानका कारण-
हेतुस्तत्रापि सम्यक्त्वोत्पत्तिकालेस्त्यवश्यतः । तज्ज्ञानावरणस्योच्चैरस्त्यवस्थान्तरं स्वतः ॥ ४०७ ॥
अर्थ – सम्यक्त्वके होने पर लब्धि रूप स्वानुभूति अवश्य होजाती है ऐसा होने में कारण भी यही है कि जिस समय सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है, उसी समय स्वानुभूत्यावरण कर्म ( मतिज्ञानावर विशेष ) की अवस्था पलट जाती है अर्थात् क्षयोपशम होजाता है ।