________________
man
अध्याय।
सुबोधिनी टीका ।
फिर सम्यक्त्व कैसे जाना जाय?प्रसिद्ध ज्ञानमेकैकं साधनादिविधौ चितः। स्वानुभूत्येकहेतुश्च तस्मात्तत्परमं पदम् ॥ ४०१॥
अर्थ-वस आत्माका एक ज्ञान गुण ही प्रसिद्ध है जो कि हरएक पदार्थकी सिद्धि कराता है । सम्यग्दर्शनके जाननेके लिये स्वानुभूति ही एक हेतु है, इसलिये वही सर्वोत्कृष्ट वस्तु है।
___ स्वानुभूतिका स्वरूप-- तत्राप्यात्मानुभूतिः सा विशिष्टं ज्ञानमात्मनः।
सम्यक्त्वेनाविनाभूतमन्वयाव्यतिरेकतः॥४०२॥ अर्थ-वह आत्मानुभूति आत्माका ज्ञानविशेष है, और वह ज्ञानविशेष, सम्यग्दर्शनके साथ अन्वय और व्यतिरेक दोनोंसे अविनाभाव रखता है।
भावार्थ—जो जिसके होने पर होता है उसे अन्वय कहते हैं और जो जिसके नहीं होने पर नहीं होता है उसे व्यतिरेक कहते हैं । सम्यग्दर्शनके प्रगट होने पर ही आत्मामें शुद्ध अनुभव ( स्वानुभूति ) होता है, विना सम्यग्दर्शनके शुद्धानुभव नहीं होता । इसलिये स्वानुभूति (शुद्ध) का सम्यग्दर्शनके साथ सर्वथा अविनाभाव ( सहभाव ) है।
. सम्यक्त्वके कहनेकी योग्यताततोऽस्ति योग्यता वक्तं व्याप्तेः सद्धावतस्तयोः ।
सम्यक्त्वं स्वानुभूतिः स्यात्साचेच्छुडनयात्मिका ॥ ४०३ ॥
अर्थ—सम्यक्त्व और स्वानुभूतिकी जब साथ २ व्याप्ति ( सहभावीपना ) है तो फिर सम्यग्दर्शन भी रूपान्तरसे कहने योग्य हो जाता है । यह कहा जा सक्ता है कि स्वानुभूति ही सम्यक्त्व है, परन्तु वह स्वानुभूति शुद्ध नय स्वरूप हो तो।
भावार्थ-जब आत्मामें शुद्ध स्वानुभूति हो जाती है तब उसके द्वारा उसके अविनाभावी सम्यग्दर्शनकी उद्धृतिका बोध हो जाता है। इसी लिये शुद्ध स्वानुभूतिको ही सम्यक्त्व कह दिया गया है।
व्यातिभेद-- किश्चास्ति विषमव्याप्तिः सम्यक्त्वानुभवद्धयोः।
नोपयोगे समव्याप्तिरस्ति लब्धिविधौ तु सा ॥ ४०४ ॥
अर्थ-विशेष इतना है कि सभ्यग्दर्शन और स्वानुभव इन दोनोंमें विषम व्याप्ति है क्योंकि उपयोगावस्थामें संमव्याप्ति नहीं हो सक्ती । परन्तु लब्धि रूप ज्ञानके साथ तो सम्यक्त्वकी समव्याप्ति है।