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पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा स्वार्थ, परार्थमें भेद-- स्वार्थो वै ज्ञानमात्रस्य ज्ञानमेकं गुणश्चितः ।
परार्थस्स्वार्थसम्बन्धी गुणाः शेषे सुखादयः ।। ३९८ ॥
अर्थ-ज्ञान-स्वार्थ परार्थ दोनोंका निश्चय कराता है, यहां पर ज्ञानका स्वार्थ तो क्या है, और परार्थ क्या है ? इसे ही बतलाते हैं अपने स्वरूप जो पदार्थ है वही स्वार्थ है । अपने स्वरूप पदार्थ ज्ञानका ज्ञान ही है। आत्माका ज्ञान रूप जो गुण है वही ज्ञान गुण, ज्ञानका स्वार्थ है । बाकी सब परार्थ हैं । पर स्वरूप जो पदार्थ है वह परार्थ है । पर स्वरूप पदार्थ ज्ञानसे पर ही होगा । परन्तु परार्थ भी स्वार्थ-ज्ञानसे सम्बन्ध रखने वाला है । इसलिये आत्मामें जितने भी सुखादिक अनन्त गुण हैं सभी ज्ञानके फरार्थ हैं, परन्तु वे सत्र ज्ञानसे सम्बन्ध अवश्य रखते हैं। - भावार्थ-ज्ञान अपने स्वरूपका निश्चायक है और इतर जितने भी आत्मीक गुण हैं उनका भी निश्चायक है । इसलिये ज्ञान, स्वार्थ, परार्थ दोनोंका निश्चायक है। इतना विशेष है कि ज्ञान घटपटादि पर पदार्थोंका भी निश्चायक है परन्तु वह घटपटादिसे सर्वथा भिन्न है। किन्तु सुखादि गुणोंसे सर्वथा भिन्न नहीं है। सुखादिकके साथ ज्ञानका तादात्म्य सम्बन्ध है तो भी ज्ञान गुण भिन्न है और अन्य अनन्त गुण भिन्न हैं ।
___ गुण सभी जुदे २ हैं--- तद्यथा सुखदुःखादिभावो जीवगुणः स्वयम् ।
ज्ञानं तवेदकं नूनं नाज्ज्ञानं सुखादिमत् ॥ ३९९ ॥
अर्थ- सुख दुःखादि भाव, जीवके ही गुण हैं, ज्ञान उन सबका जाननेवाला है। परन्तु वह सुखादि रूप स्वयं नहीं है।
भावार्थ-अनन्त गुणोंका तादात्म्य होते हुए भी भिन्न२ कार्योंकी अपेक्षासे सभी गुण भिन्नर हैं, परन्तु इतर गुणोंसे ज्ञान गुण विशेष है । और मुण निर्विकल्पक (स्व-पराऽवेदक) हैं और ज्ञान गुण सविकल्पक (स्व-परवेदक ) है।
सम्यग्दर्शन वचनके अगोचर हैसम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्ममस्ति वाचामगोचरम् ।
तस्माद्वक्तुं च श्रोतुं च नाधिकारी विधिक्रमात् ॥ ४०० ॥
अर्थ-सम्यग्दर्शन वास्तवमें आत्माका सूक्ष्म गुण है, वह वचनोंके गोचर नहीं है अर्थात् वचनों द्वारा हम उसे नहीं कह सक्ते । इसलिये उसके कहने सुननेके लिये विधिक्रमसे कोई अधिकारी नहीं होसक्ता।