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सुबोधिनी टीका ।
सम्यग्दर्शनका स्वरूप
सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरम् । गोचरं स्वावधिस्वान्तपर्ययज्ञानयोर्द्वयोः ॥ ३७५ ॥
अध्याय । ]
[ १०७
अर्थ — सम्यग्दर्शन वास्तवमें आत्माका अति सूक्ष्म गुण है वह केवलज्ञानका विषय है । तथा परमावध, सर्वावधि और मनः पर्यय ज्ञानका भी विषय है अर्थात् इन्हीं तीनों ज्ञानोंसे जाना जासक्ता है ।
किन्तु—
न गोचरं मतिज्ञानश्रुतज्ञानद्वयोर्मनाक् ।
नापि देशावधेस्तत्र विषयोऽनुपलब्धितः ॥ ३७६ ॥
अर्थ — मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका किञ्चित् भी वह विषय नहीं है और न देशावधिका ही विषय है । इनके द्वारा उसका बोध नहीं होता है ।
सम्यक्त्व में विपरीतता
अस्त्यात्मनो गुणः कश्चित् सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् । तद्दृङ्मोहोदयान्निध्पास्वादुरूपमनादितः ॥ ३७७ ॥
अर्थ — आत्माका एक विलक्षण निर्विकल्पक गुण सम्यक्त्व है । वह सम्यग्दर्शन दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे अनादिकाल से मिथ्या स्वादुरूप हो रहा है ।
भावार्थ - मोहनीय कहते ही उसे हैं जो मूच्छित करदे । जिस प्रकार कडुवी तूंबीमें डाला हुआ मीठा दूध उस तूंबीके निमित्तसे कडवा हो जाता है, उसी प्रकार दर्शनमोहनीयके निमित्तसे वह सम्यक्त्व भी अपने स्वरूपको छोड़कर विपरीत स्वादवाला ( मिथ्यात्व) हो जाता है । यह अवस्था उसकी अनादिकाल से हो रही है ।
सम्यक्त्वकी प्राप्तिका उपाय
दैवात्कालादिसंलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे ।
भव्यभावविपाकाद्वा जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥ ३७८ ॥
अर्थ — दैवयोगसे ( विशेष पुण्योदय से ) कालादि लब्धियोंके प्राप्त होने पर तथा संसारसमुद्र निकट ( थोड़ा ) रह जाने पर और भव्य भावका विपाक होनेसे यह जीव सम्यक् प्राप्त होता है ।
भावार्थ - खयुवसम विसोही देणपाउग्ग करण लद्धीए । चत्तारिवि सामण्णा करणं पुण होदि सम्मत्ते " 1 इस गोम्मटसारके गाथाके अनुसार सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके लिये कारणभूत पांच लब्धियां बतलाई गई हैं । क्षायोपशमिक लब्धि कर्मोंके क्षयोपशम होनेपर