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पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा
कोई आत्मामें अवश्य रहेगा । जब मोक्षमें सुखका नाश होजाता है तो दुःखका सद्भाव अवश्यंभावी है । ऐसी अवस्था में नैयायिककी मानी हुई मोक्ष दुःखोत्पादक ही होगी । सारांशनिश्चितं ज्ञानरूपस्य सुखरूपस्य वा पुनः ।
देहेन्द्रियैर्विनापि स्तो ज्ञानानन्दौ परात्मनः ॥ ३७० ॥
अर्थ - ज्ञान स्वरूप और सुखस्वरूप परमात्मा है उसके शरीर और इन्द्रियोंके विना और सुख हैं यह बात निश्चित हो चुकी । अथवा निश्चयसे परमात्माके ज्ञान और
भी ज्ञान सुख दोनों हैं
सम्यग्दृष्टिका स्वरूप --
इत्येवं ज्ञाततत्त्वोसौ सम्यग्दृष्टिर्निजात्मदृक् । वैषयिके सुखे ज्ञाने रागद्वेषौ परित्यजेत् ॥ ३१ ॥
अर्थ - इस प्रकार वस्तु स्वरूपको जाननेवाला यह सम्यग्दृष्टि अपनी आत्माका स्वरूप देखता हुआ विषयोंसे होने वाले सुख और ज्ञानमें राग द्वेष नहीं करता है । भावार्थ - वह वैषयिक सुख और ज्ञानसे उदासीन होजाता है ।
प्रश्न
ननुल्लेखः किमेतावान् अस्ति किंवा परोप्यतः । लक्ष्यते येन सद्दृष्टिर्लक्षणेनाञ्चितः पुमान् ॥ ३७२ ॥
अर्थ -- क्या सम्यग्दृष्टिके विषय में इतना ही कथन है, या और भी है ? ऐसा कोई लक्षण है जिससे कि सम्यग्दृष्टी जाना जासके ?
उत्तर-
अपराण्यपि लक्ष्माणि सन्ति सम्यग्दृगात्मनः । सम्यक्त्वेनाविना भूतैर्ये संलक्ष्यते सुदृक् ॥ ३७३ ॥
अर्थ — सम्यग्दृष्टिके और भी बहुतसे लक्षण हैं, जो कि सम्यग्दर्शनके अविनाभावी हैं। उन्हीं से सम्यग्दृष्टी जाना जाता है । ( जो लक्षण सम्यग्दर्शनके बिना हो नहीं सक्ते वे समयदर्शनके अविनाभावी हैं ।
सम्यग्दृष्टी का स्वरूप - उक्तमाक्ष्यं सुखं ज्ञानमनादेयं दृगात्मनः ।
नादेयं कर्म सर्वे च तद्वद् दृष्टोपलब्धितः ॥ ३७४ ॥
अर्थ - ऊपर जितना भी इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञान बतलाया गया है, सम्यग्दृष्टि के लिये वह सभी हेय (त्याज्य ) है तथा उसी प्रकार सम्पूर्ण कर्म भी त्याज्य हैं यह बात प्रत्यक्ष है ।