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अध्याय । सुबोधिनी टीका ।
[ १०९ अर्थ-फिर अन्तर्मुहूर्तमें ही विना किसी प्रयत्नके दर्शनमोहनीयका उपशम हो जाता है । उस अवस्थामें भी गुणश्रेणीके क्रमका उलङ्घन नहीं होता।
अस्त्युपशमसम्यक्त्वं दृङ्मोहोपशमाद्यथा । पुंसोवस्थान्तराकारं नाकारं चिद्रिकल्पके ॥ ३८॥
अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम होनेसे उपशम सम्यक्त्व होता है। वह मिथ्यात्व अवस्थासे पुरुषकी दूसरी अवस्थाविशेष है । सम्यग्दर्शन आत्माका निर्विकल्पक-निराकार गुण है उसीका स्पष्ट कथन नीचे किया जाता है--
सामान्यादा विशेषादा सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् ।
सत्तारूपं च परिणामि प्रदेशेषु परं चितः॥ ३८१॥ अर्थ—सामान्य रीतिसे अथवा विशेष रीतिसे सम्यक्त्व निर्विकल्पक है, सत्वरूप है और आत्माके प्रदेशोंमें परिणमन करने वाला है।
उल्लेख-- तत्रोल्लेखस्तमोनाशे तमोऽरोरिव रश्मिभिः। दिशः प्रसत्तिमासेदुः सर्वतो विमलाशयाः ॥ ३८२॥
अर्थ-सम्यक्त्व आत्मामें किस प्रकार निर्मलता पैदा करता है, इस विषयमें सूर्यका उल्लेख है कि जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंसे अन्धकारका नाश होने पर सब जगह दिशायें निर्मलता धारण करती हुई प्रसन्नताको प्राप्त होती हैं।
उसी प्रकारदृङ्मोहोपशमे सम्यग्दृष्टेरुल्लेख एव सः ।
शुद्धत्वं सर्वदेशेषु त्रिधा बन्धापहारि यत् ॥ ३८३ ।।
अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम होने पर सम्यग्दृष्टिका भी वही उल्लेख है अर्थात् उसका आत्मा निर्मलता धारण करता हुआ प्रसन्नताको प्राप्त होजाता है। उस आत्माके सम्पूर्ण प्रदेशोंमें शुद्धता होजाती है, और वह सम्यक्त्व तीन प्रकार (भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से होनेवाले बन्धका नाश करनेवाला है।
.. दूसरा उल्लेखयथा वा मद्यधतूरपाकस्यास्तंगतस्य वै।
उल्लेखो मूच्छितो जन्तुरुल्लाघः स्यादमूञ्छितः ॥ ३८४ ॥
अर्थ-जिस प्रकार कोई आदमी मदिरा या धतूरा पी लेता है तो उसे मूर्छा आजाती है, परन्तु कुछ काल बाद उसका नशा उतर जाता है तब वह मूर्छित आदमी मूर्छा रहित नीरोग होजाता है।