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पञ्चाध्यायी ।
दूसरा
अर्थ-यदि यह कहा जाय कि विग्रहगति में भी कर्मका समूह रूप कार्माण शरीर है। इसलिये शरीरजन्य दुःख वहां भी है ? तो इस कथनसे कर्मजन्य दुःख ही सिद्ध हुआ । इसलिये कर्म ही दुःख देनेवाला है यह बात भली भांति सिद्ध हो गई ।
वास्तविक सुख कहां पर है ?.
अपि सिद्धं सुखं नाम यदनाकुललक्षणम् । सिद्धत्वादपि नोकर्मविप्रमुक्तौ चिदात्मनः ॥ ३४५ ॥
अर्थ
- तथा यह बात भी सिद्ध हो चुकी कि सुख वही है जो अनाकुल लक्षणवाला है, और वह निराकुल सुख इस जीवात्माके कर्म और नोकर्मके छूट जानेपर ( सिद्धावस्था में ) होता है । (यहां पर नो-कर्म शब्दसे कर्म और नोकर्म दोनोंका ग्रहण है । )
शङ्काकार-
ननु देहेन्द्रियाभावः प्रसिडः परमात्मनि ।
तदभावे सुखं ज्ञानं सिडिमुन्नीयत कथम् ॥ ३४६ ॥
अर्थ — शङ्काकार कहता है कि परमात्मामें शरीर और इन्द्रियोंका अभाव है, यह बात प्रसिद्ध है । परन्तु बिना इन्द्रिय और शरीर के सुख और ज्ञान किस प्रकार भली भांति सिद्धिको प्राप्त होते हैं ?
भावार्थ - शङ्काकारका अभिप्राय शारीरिक और ऐन्द्रियक सुख, ज्ञानसे है । उसकी शरीर और इन्द्रियोंके बिना सुख और ज्ञान होते ही नहीं ।
उत्तर
न यद्यतः प्रमाणं स्यात् साधने ज्ञानसौख्ययोः ।
अत्यक्षस्याशरीरस्य हेतोः सिद्धस्य साधनम् ॥ ३४७ ॥
अर्थ - शङ्काकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान और सुखके सिद्ध करनेमें इन्द्रिय और शरीर प्रमाण नहीं है किन्तु प्रसिद्ध अतीन्द्रिय और अशरीर ही हेतु उनकी सिद्धिमें साधन है ।
सिद्धि प्रयोग
अस्ति शुद्धं सुखं ज्ञानं सर्वतः कस्यचिद्यथा ।
देशतोप्यस्मदादीनां स्वादुमात्रं वत द्वयोः ॥ ३४८ ॥
अर्थ- शुद्ध ज्ञान और शुद्ध सुख (आत्मीक ) का थोड़ासा स्वाद हमलोगोंमें भी किसी किसीके पाया जाता है, इससे जाना जाता है कि किसीके शुद्ध ज्ञान और सुख सम्पूर्णतासे भी है।