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अध्याय ।
सुबोधिनीटीका। आय ही नहीं है क्योंकि कर्मोको दुःखका कारण न माननेसे अनेक दोष आते हैं, यदि केवल संझी जीवोंके ही दुःख होता है, असंज्ञी जीवोंके नहीं ऐसा कहाजाय ?
और भीमहञ्चेत्संज्ञिनां दुःखं स्वल्पं चाऽसंज्ञिनां न वा। यतो नीचपदादुच्चैः पदं श्रेयस्तथामतम् ॥ ३४१॥
अर्थ-अथवा यह कहा जाय कि बहुत भारी दुःख संज्ञियोंके ही होता है और थोडा असंज्ञियोंके होता है ? तोभी यह सब कथन ठीक नहीं है । क्योंकि नीच स्थानसे उच्चस्थान सदा अच्छा माना गया है।
भावार्थ-संज्ञी और असंज्ञी जीवोंमें संज्ञियोंका दर्जा कई गुणा उत्तम है। इसलिये एक प्रकारसे नीचे ही दुःख अधिक होना चाहिये । और प्रत्यक्ष भी देखते हैं कि एकेन्द्रिय जीवोंमें ज्ञानकी कितनी हीनता है, उनको अपनी सत्ताका पता भी नहीं होपाता । क्या उन्हें अज्ञताजन्य कम दुःख है ? वही उनको अनन्त काल तक भटकानेवाले कर्मबन्धका कारण है।
यदि यह कहाजायन च वाच्यं शरीरं च स्पर्शनादीन्द्रियाणि च ।
सन्ति सूक्ष्मेषु जीयेषु तत्फलं दुःखमङ्गिनाम् ॥ ३४२॥ ' अर्थ-यदि यह कहा जाय कि एकेन्द्रियादिक सूक्ष्म जीवोंके भी शरीर और स्पर्शनादिक इन्द्रियां हैं। इसलिये उनको भी शारीरिक और ऐन्द्रियिक दुःख ही उठाना पड़ता है ? सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि
दोषापत्तिअव्याप्तिः कार्मणावस्थावस्थितेषु तथा सति । देहन्द्रियादिनोकर्मशून्यस्य तस्य दर्शनात् ॥ ३४३ ॥
अर्थ-यदि शारिरिक और इन्द्रियनन्य ही दुःख माना जावे, और कोई दुःख (कर्मजन्यः) न माना जावे तो जो जीव विग्रहगतिमें हैं, जहां केवल कार्माण अवस्था है; शरीर, इन्द्रियादि (के कारण)नोकर्म नहीं है, वहां दुःख है या नहीं?
भावार्थ-विग्रह गतिमें संसारावस्था होनेसे दुःख तो है परन्तु शरीर, इन्द्रियादिक नहीं है । जो लोग केवल शारीरिक और ऐन्द्रियिक ( मानसिक ) दुःख ही मानते हैं उनके कथनमें अव्याप्ति दोष दिया गया है।
यदि यह कहा जायअस्ति चेलार्मणो देहस्तत्र कर्मकदम्बकः । . दुःखं तहेतुरित्यस्तु सिद्ध दुःखमनीहितम् ॥ ३४४ ॥