________________
पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा
९८ ]
प्रगटता पर्यायकी अपेक्षासे है । एक समय में एक ही पर्याय होसकी है दो नहीं । ये दोनों ही एक ( सुख ) गुणकी पर्यायें हैं । दुःख वैभाविक पर्याय है और सुख स्वाभाविक हैं। स्वाभाविक और वैभाविक पर्यायें क्रमसे ही होती हैं। इस लिये एक समय में सुख और दुःख बतलाना ठीक नहीं है ।
सारांश
बहु प्रलपनेनालं साध्यं सिद्धं प्रमाणतः ।
सिद्धं जैनागमाच्चापि स्वतः सिद्धो यथागमः ॥ ३३६ ॥ अर्थ—अब अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन ! हमारा साध्य " कर्मबद्ध आत्मा दुःखी अनुमान प्रमाणसे सिद्ध हो चुका, और जैनागमसे भी आत्मामें दुःखकी सत्ता सिद्ध हो "चुकी । तथा आगममें अन्य प्रमाणोंकी आवश्यकता नहीं है, आगम स्वयं प्रमाणरूप है ।
"
आगमकथन-
एतत्सर्वज्ञवचनमाज्ञामात्रं तदागमः ।
यावत्कर्मफलं दुःखं पच्यमानं रसोन्मुखम् ॥ ३३७ ॥
अर्थ — सर्बज्ञदेवके बचनोंको आज्ञारूप समझना चाहिये, बस उसीका नाम आगम है। सर्वज्ञके ये बचन हैं कि पके हुए कर्मोंका उदयावस्थापन्न जो फल है वही दुःख है, अर्थात् जितना भी कर्मफल है वह सभी दुःख है ।
दृष्टान्त
अभिज्ञानं यदत्रैतज्जीवाः कार्मणकायकाः ।
आ एकाक्षादापञ्चाक्षा अप्यन्ये दुःखिनोमताः ॥ ३३८ ॥ अर्थ - जितने भी एकेन्द्रियसे आदि लेकर पञ्चेन्द्रिय तक जीव हैं वे सब कार्माण काय वाले हैं अर्थात सभी कर्म वाले हैं । इस लिये सभी दुःखी माने गये हैं तथा और भी जो ( विग्रह गतिमें रहने वाले ) कर्म वृद्ध हैं वे सब दुःखी माने गये हैं ।
दुःख कारण
तत्राभिव्यञ्जको भावो वाच्यं दुःखमनीहितम् ।
घातिकर्मोदयाघाताज्जीवदेशवधात्मकम् ॥ ३३९ ॥
अर्थ - घातिया कर्मोंके उदयके आघातसे आत्माके प्रदेशोंका घात करनेवाला जो कर्म है वही दुःखका सूचक है, अर्थात् घाति कर्मका उदय ही दुःखावह है ।
अन्यथा न गतिः साध्वी दोषाणां सन्निपाततः । संज्ञिनां दुःखमेवैकं दुःस्वं नाऽसंज्ञिनामिति ॥ ३४० ॥
अर्थ —- यदि कर्मोंको दुःखका कारण न माना जाय तो दुःखोंके कारणोंका और कोई