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सुबोधिनी टीका ।
ताभ्यामन्यत्र नैतेषां किञ्चिद्रव्यान्तरं पृथक् ।
न प्रत्येकं विशुद्धस्य जीवस्य पुद्गलस्य च ॥ १५३ ॥ अर्थ — जीव और पुद्गल, इन दो द्रव्योंको छोड़कर नव पदार्थ और कोई दूसरे द्रव्य नहीं है । अर्थात् नौ ही पदार्थ जीव, पुगलकी अवस्था विशेष हैं इनमें अन्य किसी द्रव्यका मेल नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि ये नौ ही पदार्थ केवल शुद्ध जीवके ही हों अथवा केवल पुलके ही हों । किन्तु दोनों ही के योगसे हुए हैं। इसी बातको नीचे दिखाते हैंजीव और पुद्गल इन दोनोंके ही नौ पदार्थ हैंकिन्तु सम्बडयोरेव तद्द्वयोरितरेतरम् । नैमित्तिकनिमित्ताभ्यां भावा नव पदा अमी ॥
१५४ ॥ अर्थ – नैमित्तिक जीव और निमित्तकारण पुद्गल, इन दोनों के ही परस्पर सम्बन्धसे पदार्थ हो गये हैं ।
अध्याय । ]
[ ५३
जीवकी ही नौ अवस्थायें हैं
अर्थान्नवपदीभूय जीवश्चैको विराजते ।
तदापि परं शुद्धस्तद्विशिष्टदशामृते ॥ १५५ ॥
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अर्थ - उपर्युक्त कथनका सारांश यही निकलता है कि यह जीव ही नौ पदार्थ रूम होकर ठहरा हुआ है । यद्यपि पहले श्लोकों द्वारा जीव और पुद्गल दोनों ही की अवस्था नौ पदार्थ रूप बतलाई है | परन्तु यहां पर जीवके ही अवस्था भेद नौ पदार्थों को बतलाया है इसका अभिप्राय यह है कि यहां पर निमित्तकारणको विवक्षित नहीं रक्खा है । पुलके निमित्तसे जीवके ये नौ भेदे होते हैं । अर्थात् अवस्था तो ये जीवकी हैं परन्तु पुद्गल निमि कारण है इसलिये यहां पर निमित्त कारणको अविवक्षित रखकर " जीव ही नौ पदार्थ रूप है " ऐसा कहा है ।
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यद्यपि इन अवस्थाओंसे यह जीव अशुद्ध है तथापि इन अवस्थाओंसे रहित विचारनेसे केवल शुद्ध जीवका ही प्रतिभास होता है ।
भावार्थ - अशुद्धताके भीतर भी शुद्ध जीवका प्रतिभास होता ही है ।
नासंभवं भवेदेतत् तद्विधेरुपलब्धितः ।
सोपरक्तेरभूतार्थात् सिद्धं न्यायाददर्शनम् ॥ १५६ ॥
अर्थ - अशुद्धता के भीतर शुद्ध जीवका प्रतिभास होता है यह बात असिद्ध नहीं है । किन्तु अनेक प्रकारसे सिद्ध है । परन्तु अयथार्थ उपाधिका सम्बन्ध हो जानेके कारण उस शुद्धताका दर्शन नहीं होता है ।
भावार्थ — पुद्गलके निमित्तसे जो आत्मा में अशुद्धता - मलिनता आ गई है इससे इस