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सुबोधिनी टीका । .
सम्यक्ज्ञानीका स्वात्मावलोकन
अथावडमथास्पृष्टं शुद्धं सिद्धपदोपमम् । शुद्धस्फटिकसंकाशं निःसङ्गं व्योमवत् सदा ॥ २३५ ॥ इन्द्रियोपेक्षितानन्तज्ञानदृग्वीर्यमूर्तिकम् ।
अध्याय । ]
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अक्षातीतसुखानन्तस्वाभाविकगुणान्वितम् ॥ २३६ ॥ पश्यन्निति निजात्मानं ज्ञानी ज्ञानैकमूर्तिमान् । प्रसङ्गादपरं चैच्छेदर्थात्सार्थ कृतार्थवत् ॥ २३७ ॥ अर्थ — ज्ञानी सदा अपनी आत्माको इस प्रकार देखता है कि आत्मा कर्मोंसे नहीं बँधा है, वह किसीसे नहीं मिला है, शुद्ध है सिद्धों की उपमा धारण करता है, शुद्ध-स्फटिकके समान है, सदा आकाशकी तरह परिग्रह रहित है, अतीन्द्रिय- अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्यकी मूर्ति है और अतीन्द्रिय सुख आदिक अनन्त स्वाभाविक गुणवाला है । इस प्रकार ज्ञानकी ही अद्वितीय मूर्ति - वह ज्ञानी अपने आपको देखता है । प्रसङ्गवश दूसरे पदार्थकी भले ही इच्छा करे, परन्तु वास्तवमें वह समस्त पदार्थोंसे कृतार्थसा हो चुका है । दूसरे सांसारिक पदार्थोंके विषयमें भी वह इस प्रकार चिन्तवन करता है
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सम्यग्ज्ञानीके विचार
ऐहिकं यत्सुखं नाम सर्व वैषयिकं स्मृतम् ।
न तत्सुखं सुखाभासं किन्तु दुःखमसंशयम् ॥ २३८ ॥
अर्थ — सम्यग्दृष्टि विचार करता है कि जो सांसारिक ( इस लोक सम्बन्धी ) सुख है बह सब पञ्चेन्द्रिय सम्बंधी विषयोंसे होनेवाला है । वास्तवमें वह सुख नहीं है, किन्तु सुखका आभासमात्र है, निश्चयसे वह दु:ख ही है ।
तस्माडेयं सुखाभासं दुःखं दुःखफलं यतः ।
हेयं तत्कर्म यद्धेतुस्तस्यानिष्टस्य सर्वतः ॥ २३९ ॥
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अर्थ — इसलिये वह सुखाभास छोड़ने योग्य है । वह स्वयं दुःख स्वरूप है । और दुःखरूप फलको देनेवाला है, उस सदा अनिष्ट करनेवाले वैषयिक सुखका कारण कर्म है, इसलिये उस कर्मका ही नाश करना चाहिये ।
* तत्सर्वं सर्वतः कर्म पौद्गलिकं तदष्टधा ।
वैपरीत्यात्फलं तस्य सर्वं दुःखं विपच्यतः ॥ २४० ॥
अर्थ — वह सम्पूर्ण पौद्गलिक कर्म सर्वदा आठ प्रकारका है, उसी कर्मका उलटा विपाक होनेसे सभी फल दुःखरूप ही होता है ।
* कर्ममात्र आत्माके गुणोंका विघातक है इसलिये सभीका विपाक विपरीत ही है। जो शुभ कर्म है वह भी दुःखका ही कारण है ।
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