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ध्याय ।
सुबोधिनी टीका।
उसीका खुलासा वाक्यसर्वसंसारिजीवानामस्ति दुःखमबुद्धिजम् । हेतोनैसर्गिकस्थात्र सुखस्याभावदर्शनात् ॥ ३१५॥
अर्थ-सम्पूर्ण संसारी जीवोंके अबुद्धि पूर्वक दुःख है । क्योंकि सुखका अदर्शनरूप स्वाभाविक हेतु दीखता है।
___ हतुकी सिद्धतानासौ हेतुरसिद्धोस्ति सिद्धसंदृष्टिदर्शनात् ।
व्याप्तेः सद्भावतो नूनमन्यथानुपपत्तितः ॥ ३१६ ॥
अर्थ----यह उपयुक्त हेतु असिद्ध नहीं है । इस विषयमें बहुतसे प्रसिद्ध दृष्टान्त मौजूद हैं । सुखका जहां अभाव है वहां दुःख अवश्य है ऐसा फलितार्थ निकालनेमें व्यतिरेक व्याप्तिका सद्भाव है। जहां पर दुःख नहीं है वहां सुखका भी अदर्शन नहीं है जैसे कि अनन्तचतुष्टय धारी अर्हन् सर्वज्ञ । अरहन्त देवके दुःख नहीं है इसलिये अनन्त सुखकी उनके उद्भूति होगई है । यदि ऐसा कार्य-कारण भाव न माना जावै तो व्याप्ति भी नहीं बन सक्ती ।
व्याप्तिमें दृष्टान्तव्याप्तिर्यथा विचेष्टस्य मूर्छितस्येव कस्यचित् ।
अदृश्यमपि मद्यादिपानमस्त्यत्र कारणम् ॥ ३१७ ॥
अर्थ-व्याप्ति इस प्रकार है-जैसे किसी मूर्छितकी तरह चेष्टा विहीन पुरुषको देखकर यह अनुमान कर लिया जाता है कि इसने मदिरापान किया है। यद्यपि मदिरा-पान प्रत्यक्ष नहीं है तो भी उसका कार्य वेहोशी देखकर उस मदिरापान-कारणका अनुमान कर लिया जाता है। उसी प्रकार प्रकृतमें जानना।
व्याप्तिका फलअस्ति संसारिजीवस्य नूनं दुःखमयुडिजम् । सुखस्यादर्शनं स्वस्य सर्वतः कथमन्यथा ॥ ३१८ ॥
अर्थ-संसारी जीवके निश्चयसे अबुद्धि पूर्वक दुःख है । यदि दुःख नहीं होता तो उसके ( आत्मीक ) सुखका सर्वथा अदर्शन कैसे होजाता ।
___ ततोनुमीयते दुःखमस्ति चूनमबुद्धिनम् । - अवश्यं कर्मबडस्य नैरन्तर्योदयादितः ॥ ३१९ ॥
अर्थ-इस कर्मसे बंधे हुए आत्माके निरन्तर कर्मोंका उदय, उदीरणा आदि होनेसे निश्चय पूर्वक अबुद्धि पूर्वक दुःख है ऐसा अनुमान होता है।