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अध्याय । ] सुबोधिनी टीका।
[ ९५ अर्थ-शङ्काकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है। क्योंकि दुःखके सिद्ध करनेमें सुखके विपक्षकी व्याप्ति है । जो सुखका विपक्षी है वही दुःखका साधक है और सुखका विपक्ष कर्म है। यह बात न्यायसे भली भांति सिद्ध है।
विरुद्धधर्मयोरेव वैपक्ष्यं नाऽविरुडयोः।
शीतोष्णधर्मयोर्वैरं न तत्क्षारद्रवत्वयोः ॥ ३२६ ॥
अर्थ-जिनका विरोधी धर्म है उन्हींकी विपक्षता होती है, जो अविरोधी धर्म वाले हैं उनकी विपक्षता नहीं होती । शीत और उष्ण धर्मवालों ( जल और अग्नि ) का ही वैर है। खारापन और पतलापन, इनका परस्पर कोई वैर नहीं है। ! क्योंकि समुद्रमें दोनों चीजें मौजूद हैं।)
सुखगुण क्या वस्तु है। निराकुलं सुखं जीवशक्तिर्द्रव्योपजीविनी ।
तबिरुद्धाकुलत्वं वै शक्तिस्तद्घातिकर्मणः ॥ ३२७ ॥
अर्थ-आकुलता रहित जीवकी एक शक्तिका नाम सुख है वह सुख नामकी शक्ति द्रव्योपजीवी है । उसीकी विरोधिनी आकुलता है, और वह आकुलता घातिया कर्मोकी शक्ति हैं।
भावार्थ-कोई कोई ऐसा भी समझे हुए हैं कि सुख और कोई चीज नहीं है, घातियां कर्मों के अभावसे होने वाली जो निशकुलता है वही सुख है किन्तु ऐसा नहीं है। निराकुलता तो आकुलताके अभावको कहते हैं । अभाव कोई वस्तु नहीं है परन्तु सुख गुण आत्माकी एक भाव रूप शक्ति है । वह ऐसी ही है जैसी कि ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति आदि शक्तियां हैं। भावरूप शक्तिका नाम ही द्रव्योपजीविनी शक्ति है और अभावरूप धर्मको प्रतिजीवी गुण कहते हैं । सुख गुणके प्रगट होनेपर आकुलता नहीं रहती है, परन्तु आकुलताका न होना ही सुख गुण नहीं है । वह एक स्वतन्त्र गुण है । उस गुणका घातक कोई खास कर्म नहीं है। किन्तु चारों ही घातिया कर्म मिलकर उसका घात करते हैं। इसी लिये तेरहवे गुणस्थानके प्रारंभमें अथवा बारहवें गुणस्थानके अन्तमें जहां पर घातिया कर्मोंका सर्वथा नाश होजाता है वहीं अनन्त सुखगुण अनन्त चतुष्टयधारी श्री अरहन्त देवके प्रगट होजाता है । इस कथनसे यह बात भी सिद्ध होजाती है कि जिन२ गुणस्थानोंमें उन घातिया कर्मोना जितना २ क्षय होता जाता है उन२ गुणस्थानों उतना उतना ही सुख गुणका अंश प्रकट होता जाता है । अतएव चौथे गुणस्थानमें भी किश्चिन्मात्र उस दिव्यअलौकिक-परमस्वादु-अनुपम सुखकी झलक मिलजाती है।