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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका।
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यथार्थताको भलीभांति जानता है । इसलिये यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो गई कि वस्तुके एक होनेपर भी स्वादभेद होता है और उसमें व्यञ्जक मिथ्यादर्शनका उदय अनुदय ही है।
सारांशइति सिद्धं कुदृष्टीनामेकैवाज्ञानचेतना। .
सर्वैर्भावैस्तदज्ञानजातैस्तैरनतिक्रमात् ॥ २२६ ॥
अर्थ-इसलिये यह बात सिद्ध हो चुकी कि मिथ्यादृष्टियों के एक ही अज्ञान चेतना है क्योंकि अज्ञानसे होनेवाले सभी भावोंका उनमें समावेश (सत्ता) है।
दूसरा सारांशसिद्धमेतावता यावच्छुडोपलब्धिरात्मनः ।
सम्यक्त्वं तावदेवास्ति तावती ज्ञानचेतना ॥ २२७॥ , अर्थ-उपर्युक्त कथनसे यह बात भी सिद्ध हो चुकी कि जब तक आत्माकी शुद्ध उपलब्धि है तभी तक सम्यक्त्व है और तभी तक ज्ञानचेतना भी है।
भावार्थ-सम्यग्दर्शनके अभावमें न शुद्धोपलब्धि है, औन न ज्ञानचेतना ही है। सम्बग्दर्शनके होनेपर ही दोनों हो सकती हैं।
ज्ञानी और अज्ञानीएकः सम्यग्दृगात्माऽसौ केवलं ज्ञानवानिह । ततो मिथ्यादृशः सर्वे नित्यमज्ञानिनो मताः ॥ २२८ ॥ .
अर्थ-इस संसारमें केवल एक ही सम्यग्दृष्टी ज्ञानवान् (सम्यज्ञानी) है। बाकी सभी मिथ्यादृष्टी जीव सदा अज्ञानी (मिथ्याज्ञानी) कहे गये हैं।
ज्ञानी और अशानीका क्रियाफलक्रिया साधारणी वृत्ति र्जानिनोऽज्ञानिनस्तथा ।
अज्ञानिनः क्रिया, बन्धहेतुर्न ज्ञानिनः कचित् ॥ २२९॥
अर्थ-ज्ञानी और अज्ञानी ( सम्यग्दृष्टी और मिथ्यादृष्टी ) दोनों ही की क्रिया गमपि समान है, तथापि अज्ञानीकी क्रिया बन्धका कारण है परन्तु ज्ञानीकी क्रिया कहीं भी बन्धका कारण नहीं है।
ज्ञानीकी क्रियाका और भी विशेष फलआस्तां न बन्धहेतुः स्याज्ज्ञानिनां कर्मजा किया। चित्रं यत्पूर्वबद्धानां निर्जरायै च कर्मणाम् ॥ २३० ॥
अर्थ-ज्ञानियोंके कर्मसे होनेवाली क्रिया बन्धका हेतु नहीं है, यह तो है ही परंतु आश्चर्य तो इस बातका है कि वह क्रिया केवल पूर्व बंधे हुए कर्मोकी केवल निर्जराका कारण है।