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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका। [ ७१ यथार्थताको भलीभांति जानता है । इसलिये यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो गई कि वस्तुके एक होनेपर भी स्वादभेद होता है और उसमें व्यञ्जक मिथ्यादर्शनका उदय अनुदय ही है। सारांशइति सिद्धं कुदृष्टीनामेकैवाज्ञानचेतना। . सर्वैर्भावैस्तदज्ञानजातैस्तैरनतिक्रमात् ॥ २२६ ॥ अर्थ-इसलिये यह बात सिद्ध हो चुकी कि मिथ्यादृष्टियों के एक ही अज्ञान चेतना है क्योंकि अज्ञानसे होनेवाले सभी भावोंका उनमें समावेश (सत्ता) है। दूसरा सारांशसिद्धमेतावता यावच्छुडोपलब्धिरात्मनः । सम्यक्त्वं तावदेवास्ति तावती ज्ञानचेतना ॥ २२७॥ , अर्थ-उपर्युक्त कथनसे यह बात भी सिद्ध हो चुकी कि जब तक आत्माकी शुद्ध उपलब्धि है तभी तक सम्यक्त्व है और तभी तक ज्ञानचेतना भी है। भावार्थ-सम्यग्दर्शनके अभावमें न शुद्धोपलब्धि है, औन न ज्ञानचेतना ही है। सम्बग्दर्शनके होनेपर ही दोनों हो सकती हैं। ज्ञानी और अज्ञानीएकः सम्यग्दृगात्माऽसौ केवलं ज्ञानवानिह । ततो मिथ्यादृशः सर्वे नित्यमज्ञानिनो मताः ॥ २२८ ॥ . अर्थ-इस संसारमें केवल एक ही सम्यग्दृष्टी ज्ञानवान् (सम्यज्ञानी) है। बाकी सभी मिथ्यादृष्टी जीव सदा अज्ञानी (मिथ्याज्ञानी) कहे गये हैं। ज्ञानी और अशानीका क्रियाफलक्रिया साधारणी वृत्ति र्जानिनोऽज्ञानिनस्तथा । अज्ञानिनः क्रिया, बन्धहेतुर्न ज्ञानिनः कचित् ॥ २२९॥ अर्थ-ज्ञानी और अज्ञानी ( सम्यग्दृष्टी और मिथ्यादृष्टी ) दोनों ही की क्रिया गमपि समान है, तथापि अज्ञानीकी क्रिया बन्धका कारण है परन्तु ज्ञानीकी क्रिया कहीं भी बन्धका कारण नहीं है। ज्ञानीकी क्रियाका और भी विशेष फलआस्तां न बन्धहेतुः स्याज्ज्ञानिनां कर्मजा किया। चित्रं यत्पूर्वबद्धानां निर्जरायै च कर्मणाम् ॥ २३० ॥ अर्थ-ज्ञानियोंके कर्मसे होनेवाली क्रिया बन्धका हेतु नहीं है, यह तो है ही परंतु आश्चर्य तो इस बातका है कि वह क्रिया केवल पूर्व बंधे हुए कर्मोकी केवल निर्जराका कारण है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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