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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका।
सम्यग्दृष्टिकी अभिलाषायें शान्त हो चुकी हैंतद्यथा न मदीयं स्यादन्यदीयमिदं ततः।
परप्रकरणे कश्चित्तृप्यन्नपि न तृप्यति ॥ २६४ ॥
अर्थ-हम लोगोंके भी एक देश रूपसे अभिलाषायें नहीं होती हैं, इसी बातको बतलाते हैं
हम लोग अपने सम्बन्धियोंसे प्रेम करते हैं दूसरोंसे नहीं करते । जब हम यह जान लेते हैं कि यह हमारी वस्तु नहीं है यह तो दूसरोंकी है तब झट दूसरोंकी वस्तुओंके विषयमें. सन्तोष धारण कर लेते हैं। फिर वहां पर अभिलाषा नहीं होती परन्तु अपनी वस्तुओंमें सन्तोष नहीं होता वहां तो अभिलाषा लगी ही रहती है। इससे सिद्ध होता है कि दूसरे पदार्थोके विषयमें हमारी भी अभिलाषायें शान्त हैं।
भावार्थ-निस प्रकार हम अपनी वस्तुको अपनी समझ कर प्रेम करते हैं, उस प्रकार सम्यग्दृष्टि अपनीको भी अपनी नहीं समझता, क्योंकि वास्तवमें जिसको हमने अपनी वस्तु समझ रक्खा है वह भी तो दूसरी ही है । इसलिये उसकी अभिलाषा उस अपनी मानी हुई वस्तुमें भी ( जैसे कि हमको होती है ) नहीं होती । इसीसे कहा जाता है कि उसकी सम्पूर्ण अभिलाषायें शान्त हो चुकी हैं।
दृष्टान्त
यथा कश्चित्परायत्तः कुर्वाणोऽनुचितां क्रियाम् ।
कर्ता तस्याः क्रियायाश्च न स्यादस्ताभिलाषवान् ॥ २६५ ॥ - अर्थ-जिस प्रकार कोई पराधीन पुरुष पराधीनता वश किसी अनुचित क्रिया (कार्य) को करता है तो भी उसका करनेवाला वह नहीं समझा जाता है । क्योंकि उसने अपनी अभिलाषासे उस कार्यको नहीं किया है किन्तु पर प्रेरणासे किया है।
भावार्थ-इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि किसी कार्य (वैषयिक ) को करता भी हैं, परन्तु उसकी अन्तरंग अभिलाषा उस कार्यमें नहीं होती है । कर्मके ( चारित्र मोहनीय ) तीव्रोदयसे ही वह अनुचित कार्यमें प्रवृत्त होता है । मिथ्यादृष्टि उसी कार्यमें रति पूर्वक लगता है इसलिये वह पापबन्धका भागी होता है । उसमें भी कारण मिथ्यात्व पटलसे होनेवाले उसके अज्ञान मयभाव ( मूछित-परिणाम ) ही हैं ।
व शङ्काकार-- स्वदते ननु सदृष्टिीरन्द्रियार्थकदम्बकम् ।
तत्रेष्टं रोचते तस्मै कथमस्ताभिलाषवान् ॥ २६६ ॥ अर्थ-शकाकार कहता है कि सम्यग्दृष्टी भी इन्द्रिय जन्य विषयोंका सेवन करता