________________
पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा सर्वघाति स्पर्धकों ( सर्वघाति परमाणुओं ) का उदयाभावी क्षय (जो कर्म उदयमें आकर विना फल दिये खिर जाय उसे उदयाभावि क्षय कहते हैं) होजाता है तथा उन्ही सर्वघाति स्पर्धकोंका सत्तामें उपशम होता है और देशघाति स्पर्धकोंका उदय होता है वहां क्षयोपशम कहलाता है। ऐसी अवस्थामें जो आत्मविशुद्धि होती है उसीका नाम लब्धि है। इसीका संक्षिप्त उपर्युक्त श्लोकमें कहा गया है।
__ प्रकृतार्थ-- ततः प्रकृतार्थमेवैतद्दिङ्मानं ज्ञानमन्द्रियम् ।।
तदर्थार्थस्य सर्वस्य देशमात्रस्य दर्शनात् ॥ ३०३ ॥
अर्थ-ऊपर कही हुई समस्त वातोंका प्रकरणमें यही प्रयोजन है कि इन्द्रियजन्य ज्ञान दिङ्मात्र होता है। पूरे पदार्थके एक देश मात्रका इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष होता है।
वह ज्ञान खण्डित है-- खण्डितं खण्डशस्तेषामेकैकार्थस्य कर्षणात् ।
प्रत्येकं नियतार्थस्य व्यस्तमात्रे सति क्रमात् ॥ ३०४ ॥ ___ अर्थ-उन सम्पूर्ण पदार्थों में से एक एक पदार्थके खण्ड २ ( अंशमात्र ) को जानता है इस लिये वह इन्द्रियजन्य ज्ञान खण्डित-अधूरा भी है। तथा वह भिन्न २ होता है, किसी नियमित वस्तुको भिन्न २ अवस्थामें क्रमसे जानता है।
वह ज्ञान दुःखविशिष्ट भी हैआस्तामित्यादि दोषाणां सन्निपातास्पदं पदम् । ऐन्द्रियं ज्ञानमप्यस्ति प्रदेशचलनात्मकम् ॥ ३०५॥ निष्क्रियस्यात्मनः काचिद्यावदोदयिकी क्रिया।
अपि देशपरिस्पन्दो नोयोपाधिना विना ॥ ३०६ ॥
अर्थ-इन्द्रियजन्य ज्ञान उपर्युक्त अनेक दोषोंके समावेशका स्थान तो है ही, साथमें वह आत्मप्रदेशोंकी कंपता ( चलपना ) को लिये हुए है। और इस क्रियाविहीन आत्माकी जब तक कोई औदयिकी ( कोके उदयसे होने वाली ) क्रिया रहती है तभी तक आत्म. प्रदेशोंका हलन चलन होता है । कर्मोके उदयके विना हलनचलन नहीं हो सक्ता ।
भावार्थ-इन्द्रियजन्य ज्ञान कर्मोदय-उपाधिको लिये हुए है और कर्मोदय-उपाधि दुःखरूप है तथा कर्मबन्धका कारण है इसलिये यह ज्ञान दुःखावह ही है।
कर्मोदय-उपाधि दुःखरूप है. नासिद्धमुदयोपाधे र्दुःखत्वं कर्मणः फलात् ।
. ... कर्मणो यत्फलं दुःखं प्रसिद्ध परमागमात् ॥ ३०७॥ ..