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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका। अर्थ-उन इन्द्रियादिकोंकी रचनाकी भी दैवयोगसे समाप्ति हो जावे । फिर कहीं कमौके क्षयोपशम होनेसे स्वपर पदार्थका उपयोग हो । उसमें भी बाह्य हेतु द्रव्येन्द्रियां हैं।
उपयोगमें अन्यकारणकलापअस्ति तत्रापि हेतुर्वा प्रकाशो रविदीपयोः।
अन्यदेशस्थसंस्कारः पारं पर्यावलोकनम् ॥ २९ ॥
अर्थ-इतना सब कुछ होने पर भी यदि सूर्य और दीपकका प्रकाश न हो तो भी उपयोगात्मक ज्ञान नहीं हो सक्ता है । इसलिये प्रकाशका होना आवश्यक है । और भीपहले किसी स्थानमें किये हुए ज्ञानके संस्कार मी कारण हैं। फिर भी परम्परासे अवलोकन (प्रत्यक्ष) होता है।
हेतुकी हीनतामें ज्ञान भी नहीं हो सक्ता है-- , एतेषु हेतुभूतेषु सत्सु सट्टानसंभवात् । ___ रूपेणैकेन हीनेषु ज्ञानं नार्थोपयोगि तत् ॥ ३०० ॥
अर्थ-इन ऊपर कहे हुए पश्चेन्द्रियकर्म, मानस कर्म, पर्याप्तकर्म, इन्द्रियादिककी रचना, सूर्यादिकका प्रकाश, अन्य देशस्थ संस्कार आदि समग्र हेतुओंके होने पर ही वस्तुका ठीक २ भान ( ज्ञान--प्रत्यक्ष ) होना संभव है। यदि इन कारणोंमेंसे कोई भी कम हो तो पदार्थका ज्ञान नहीं हो सकता।
अस्ति तत्र विशेषोयं विना बाह्येन हेतुना । ज्ञानं नार्थोपयोगीति लब्धिज्ञानस्य दर्शनात् ॥ ३०१॥
अर्थ-यहां पर इतना विशेष समझ लेना चाहिये कि क्षयोपशम (लब्धि ) ज्ञानके होने पर भी विना बाह्य कारणके मिले पदार्थोंका ज्ञान ( उपयोग रूप ) नहीं हो सक्ता है।
क्षयोपशमका स्वरूप-- देशतः सर्वतो घातिस्पर्धकानामिहोदयात् ।
क्षायोपशमिकावस्था न चेज्ज्ञानं न लब्धिमत् ॥ ३०२॥
अर्थ--देशवातिस्पर्धकोंका उदय होने पर सर्वघातिस्पर्धकोंका उदयक्षय ( उदयाभावी क्षय ) होने पर क्षयोपशम होता है। ऐसी क्षयोपशम-अवस्था यदि न हो तो वह कषिरूप ज्ञान भी नहीं हो सत्ता ।
भावार्थ-सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदिकमें क्षयोपशमका खुलासा लक्षण इस प्रकार है- सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात् तेषामेव सदुपशम त् देशघातिस्पर्धकानामुदयात् क्षायोपशभिकं जायते " जो कर्म आत्माके सम्पूर्ण रीतिसे गुणोंको रोकें उन्हे सर्वघातिक कहते हैं, और जो गुणोंको एक देशसे घातें उन्हें देशघातिक कहते हैं । नहांपर
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