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अध्याय । ]
सुबोधिनीटीका।
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कर्मोके भेद हैं उन आक्रण करनेवाले कर्मोकी भी सन्तान बराबर चलती रहती है।
भावार्थ-ज्ञानको ढकने वाले कर्मकी अपेक्षासे ही ज्ञानके भेद होते हैं। जितने भेद उस ढकनेवाले कर्मके हैं, उतने ही भेद ज्ञानमें हो जाते हैं। आवरण करनेवाले कर्मके असंख्यात भेद हैं । ये भेद स्कन्धकी अपेक्षासे हैं परन्तु प्रत्येक परमाणु में ज्ञानको रोकनेकी शक्ति है इस लिये प्रत्येक परमाणुकी शक्तिकी अपेक्षासे उस कर्मके भी अनन्त भेद है। इसी प्रकार ज्ञानके भी असंख्यात और अनन्त भेद हैं । जैसा जैसा आवरण हटसा जाता है वैसा वैसा ही ज्ञान प्रकट होता जाता है । इसी वातको नीचे बतलाते हैं -
तत्रालापस्य यस्योच्चैर्यावदंशस्य कर्मणः । क्षायोपशमिकं नाम स्थावस्थान्तरं स्वतः ॥ २९२ ॥ अपि वीर्यान्तरायस्य लब्धिरित्यभिधीयते। तदैवास्ति स आलापस्तावदंशश्च शक्तितः ॥ २९३ ॥
अर्थ-जिस आलाप ( भेद-पटल ) के जितने कर्मके अंशका क्षयोमशम होजाता है, उतनी ही ज्ञानकी अवस्था दूसरी होजाती है अर्थात् उतना ही ज्ञान प्रकट रूपमें आता है। जिस प्रकार ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होता है उसी प्रकार वीर्यान्तराय कर्मका भी क्षयोपशम होना आवश्यक है । उक्त दोनों कर्मोके क्षयोपशम होनेसे जो ज्ञानमें विशुद्धि होती है वही एक आलाप ( ज्ञान-भेद ) कहलाता है और शक्तिकी अपेक्षा भी उतना ही अंश ( ज्ञान विशुद्धि ) कहलाता है । भावार्थ-इसी प्रकार जितना २ ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होता जाता है उतना २ ही ज्ञानांश प्रकट होता जाता है। आवरण क्रमसे हटते हैं इसीसे विशेष ज्ञान भी क्रमसे ही होता है । वे ही क्रमसे हटनेवाले आवरण और क्रमसे होनेवाले ज्ञान भिन्न भिन्न कहलाते हैं इसीका नाम आलाप है। यह ज्ञान लब्धि रूप है। अब उपयोगात्मक ज्ञानको बतलाते हैं
उपयोगात्मक ज्ञान.. उपयोगविवक्षायां हेतुरस्यास्ति तद्यथा ।
अस्ति पञ्चेन्द्रियं कर्म कर्मस्यान्मानसं तथा ।। २९४ ॥
अर्थ-जितना२ आवरण हटता है उतना२ ज्ञान प्रकट होता है यह ऊपर कह चुके हैं, परन्तु इतना होनेपर भी वस्तुका ज्ञान नहीं होता, आत्माके परिणाम जिस तरफ उन्मुखरिजु होते हैं उसीकी ज्ञान होता है इसीका नाम उपयोग है। इसी उपयोगकी विवक्षामें पञ्चेन्द्रिय नाम कर्म और मानस कर्म, ये दोनों हेतु हैं।