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पञ्चाध्यायी ।
पञ्चेन्द्रिय और मानस कर्मका उदय होना चाहिये
दैवात्तद्बन्धमायाति कथञ्चित्कस्यचित्कचित् । अस्ति तस्योदयस्तावन्न स्यात्संक्रमणादि चेत् ॥ २९५ ॥ अर्थ - उपर्युक्त दोनों प्रकारका कर्म (पञ्चेन्द्रिय, मानस) दैव योगसे कहीं किसीके किसी प्रकार बँधता है और बन्ध होनेपर भी उसका उदय तभी होता है जब कि संक्रमणादिक न हों। भावार्थ — कर्म बंधने पर भी यह नियम नहीं हैं कि उसका उदय हो ही होय, क्योंकि कर्मोंमें फेरफार भी हुआ करते हैं । कोई कर्म भिन्नर भावोंके अनुसार बदलता भी रहता है । एक कर्म दूसरे रूप होजाता है । जैसे कि अनन्तानुबन्धिकषाय द्वितीयोपशम सम्यक्त्ववाले के बदल कर अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन, इनमें से किसी रूप होजाती है । फिर जो उसका उदय होगा वह इन्हीं तीनमेंसे किसी रूप होगा । अनन्तानुबन्धि रूप से नहीं होता । इसी प्रकार यहां बतलाते हैं कि जिस पुरुषके पञ्चेन्द्रिय कर्म और मानस कर्म बँध भी जाँय, फिर भी वे अपने रूपमें तभी उदय होंगे जब कि उनमें किसी प्रकार परिवर्तन न होगा । परिवर्तनका नाम ही संक्रमण है । संक्रमणके भी अनेक भेद हैं । कोई पूर्ण प्रकृतिका परिवर्तन करता है, कोई कुछ अंशोंका । इसीके अनुसार उसके उद्वेलन, संक्रमण, अधःप्रवृत्त, विध्यात आदि नाम भी हैं । यदि इसका खुलासा जानना हो तो गोम्मटसार कर्मकाण्डको देखिये । पर्याप्त नाम कर्मका भी उदय होना चाहिये-
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८८ ]
[ दूसरा
अथ तस्योदये हेतुरस्ति हेत्वन्तरं यथा ।
पर्याप्तं कर्म नामेति स्यादवश्यं सहोदयात् ॥ २९६ ॥
अर्थ — आगे उस पञ्चेन्द्रिय और मानस कर्मके उदयमें दूसरा कारण भी बतलाते हैं । उपर्युक्त दोनों कर्मोंके साथ पर्याप्त नाम कर्मका भी उदय होना अत्यावश्यक है । विना पर्याप्तियों हुए शरीरादिक पूरे भी नहीं होपाते, बीच में ही मृत्यु होजाती है । इस लिये पर्याप्त कर्मका उदय भी अवश्य होना चाहिये ।
इन्द्रिय और मनकी रचना --
सति तत्रोदये सिद्धाः स्वतो नोकर्मवर्गणाः ।
मनो देहेन्द्रियाकारं जायते तन्निमित्ततः ॥ २९७ ॥
अर्थ - पर्याप्त कर्मके उदय होने पर नो कर्म वर्गणायें भी आने लगती हैं यह वात
स्वतः सिद्ध है उन नोकर्म वर्गणाओंके निमित्तसे मन और शरिरमें इन्द्रियोंका आकार बनता है । उपयोग में द्रव्येन्द्रियां भी कारण हैं
तेषां परिसमाप्तिश्वेज्जायते दैवयोगतः ।
लब्धेः स्वार्थोपयोगेषु बाह्यं हेतुर्जडेन्द्रियम् ॥२९८॥