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पश्चाध्यायी।
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दृष्टान्तन्यापीडितो जनः कश्चित्कुर्वाणो रुप्रतिक्रियाम् । । तदात्वे रुक्पदं नेच्छेत् का कथा रुक्षुनर्भवे ॥ २७१ ॥
अर्थ-कोई आदमी जिसको कि रोग सता रहा है रोगका प्रतीकार (नाश ) करता है । रोगका प्रतीकार करने पर भी वह रोगी रहना नहीं चाहता, तो क्या वह कमी बाहेगा कि मेरे फिरसे रोग हो जाय। -
भावार्थ--जिस आदमीको दाद हो गया हो वह उस दादका इलाज करता है। इलाज करनेसे उसका दाद चला जाता है, तो क्या दादके चलेजानेसे वह ऐसा भी कभी चाहेगा कि मेरे फिरसे दाद हो आवे ? कभी नहीं ।
दाटीन्तकर्मणा पीडितो ज्ञानी कुर्वाणः कर्मजां क्रियाम् ।
नेच्छेत् कर्मपदं किञ्चित् साभिलाषः कुतो नयात् ॥ २७२ ।।
मर्थ-इसी प्रकार सम्यग्ज्ञानी भी चारित्रमोहनीय कर्मसे पीडित होकर उस कर्मके उदयसे होनेवाली क्रियाको करता है। परन्तु उस क्रियाको करता हुआ भी वह उस स्थानको ( उसी क्रियाको ) पसन्द नहीं करता है। तो फिर उसके अभिलाषा ( चाहना ) है, ऐसा किस नयसे कहा जा सकता हैं ?
__ अनिच्छा पूर्वक भी क्रिया है-- नासिद्धोऽनिच्छितस्तस्य कर्म तस्याऽऽमयात्मनः।
वेदनायाः प्रतीकारो न स्याद्रोगादिहेतुकः ॥ २७३ ।
अर्थ-सम्यग्दृष्टीके इच्छाके विना भी क्रिया होती है यह वात असिद्ध नहीं है। जो रोगी है वह वेदनाका प्रतीकार करता है, परन्तु वह उसका प्रतीकार करना रोगादिक होनेका कारण नहीं है।
भावार्थ-जिस प्रकार रोगके दूर करनेका उद्योग रोगका कारण कभी नहीं हो सकता, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टीकी विना इच्छाके होनेवाली क्रिया अभिलाषाको पैदा नहीं कर सक्ती।
सम्यग्दृष्टी भोगी नहीं हैसम्यग्दृष्टिरमौ भोगान् सेवमानोप्यसेवकः ।
नीरागस्य न रागाय कर्माऽकामकृतं यतः ॥ २७४॥ भयोग्य कार्य है तथापि अप्रत्याख्यानावरणादि चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे उसे ये सब काम स्मे पडते हैं। द्रव्याहिंसा भावहिंसा भी करनी पड़ती है परन्तु सम्यग्दर्शनके प्रगट होजानेसे वह पापोंसे अत्यन्त क्लेशित नहीं होता है।