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पञ्चाध्यायी। .
[ दूसरी अर्थात् इंद्रियजन्य सुख और ज्ञान ग्रहण करने योग्य नहीं हैं और पीछेके दो अर्थात् अतीन्द्रिय सुख और अतीन्द्रिय ज्ञान अच्छी तरह ग्रहण करने योग्य हैं । इन्द्रियजन्य सुखके विषयमें तो पहले कह चुके हैं अब इन्द्रियजन्य ज्ञानमें दोष बतलाते हैं
इन्द्रियज ज्ञानननं यत्परतो ज्ञानं प्रत्यर्थ परिणामि यत् । व्याकुलं मोहसंपृक्तमाहःखमनर्थवत् ॥ २७८ ॥
अर्थ-जो ज्ञान पर ( इन्द्रिय और मन ) की सहायतासे होता है वह एक एक पदार्थमें क्रमसे परिणमन करता है। इसी लिये वह निश्चयसे व्याकुल है, मोहसे मिला हुआ है, दुःख स्वरूप है और अनर्थ करनेवाला है।
भावाथ-इन्द्रियजन्य ज्ञान द्वारा पदार्थका ग्रहण पूरी तौरसे नहीं होता है, किन्तु एक एक पदार्थका, सो भी स्थूलतासे पदार्थके एक देशांशका होता है। बाकी अंश और पदार्थान्तरोंके जाननेके लिये वह सदा व्याकुल ( चञ्चल ) रहता है। साथमें वह मोहनीय कर्मके साथ मिला हुआ है इसलिये पदार्थका यथार्थ स्वरूप नहीं जान सक्ता, इसलिये वह अनर्थकारी है । वास्तवमें वह दुःख देनेवाला ही है इससे दुःख स्वरूप है । उस ज्ञानसे आत्मा सन्तुष्ट ( सुखी ) नहीं होता।
दुःख रूप क्यों है ? सिद्धं दुःखत्वमस्योचैर्व्याकुलत्वोपलब्धितः।
ज्ञातशेषार्थसद्भावे तहुभुत्सादिदर्शनात् ॥ २७९ ॥
अर्थ-जो पदार्थ ज्ञानका विषय नहीं होता है अथवा एक ही पदार्थका जो अंश नहीं जाना जाता है उसी सबके जाननेके लिये वह ज्ञान उत्कण्ठित, तथा अधीर रहता है, इसलिये वह व्याकुलता पूर्ण है। व्याकुलता होनेसे ही वह ज्ञान ( इन्द्रियज ) दुःखरूप हैं।
आस्तां शेषाथेजिज्ञासोरज्ञानाद् व्याकुलं मनः। उपयोगि सदर्थेषु ज्ञानं वाप्यसुखावहम् ॥ २८०॥
अर्थ—शेष पदार्थोंके जाननेकी इच्छा रखनेवाला मन ( इन्द्रियां भी) अज्ञानतासे व्याकुल है, यह तो है ही, परन्तु जिन यथार्थ पदार्थोमें वह उपयुक्त ( लगा हुआ ) है । उनके विषयमें भी वह दुःखप्रद ही हैं। किस प्रकार ? सोई बतलाते हैं
प्रमत्तं मोहयुक्तत्वानिकृष्टं हेतुगौरवात् ।
व्युच्छिन्नं क्रमवर्तित्वात् कृच्छं चेहाद्युपक्रमात् ॥ २८१ ।। - अर्थ-इन्द्रिय और मनसे होनेवाला ज्ञान, मोह सहित है इसलिये प्रमादी है, विना हेतु वगैरह ( प्रत्यक्ष ) के होता नहीं इस लिये हेतु गौरव होनेसे निकृष्ट है, क्रम क्रमसे