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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका। दृश्यते रतिरेतेषां सुहितानामिवेक्षणात् ।
तृष्णावीज जलौकानां दुष्टशोणितकर्षणात् ॥ २५६ ॥
अर्थ-इन्द्रियार्थ सेवियोंकी विषय-रति देखनेमें भी आती है, वे लोग उन्ही पदार्थोकी प्राप्तिसे सुहित सा मानने लगते हैं। जिस प्रकार खराब रक्त (लोह) के पीनेमें ही जोंक (जलजन्तु) हित समझती है और उसीसे प्रेम करती है। उसी प्रकार इन्द्रियार्थ सेवियोंकी अवस्था समझनी चाहिये । यह उनका प्रेम तृष्णाका बीज है अर्थात् उस रीतिसे तृष्णाकी वृद्धि ही होती जाती है।
देवेन्द्र, नरेन्द्रोंको भी सुख नहीं हैशक्रचक्रधरादीनां केवलं पुण्यशालिनाम् । तृष्णावीजं रतिस्तेषां सुखावाप्तिः कुतस्तनी ॥ २५७ ॥
अर्थ केवल पुण्यको धारण करनेवाले जो इन्द्र और चक्रवर्ती आदिक बड़े पुरुष हैं 'उनके भी तृष्णाका बीजभूत विषय-लालसा है, इसलिये उनको भी सुखकी प्राप्ति कहां रक्खी है।
भावार्थ-संसारमें सर्वोपरि पुण्यशाली इन्द्र और चक्रवर्ती आदिक हैं वे भी इस विषय-रतिसे दुःखी हैं, इस लिये सच्चे सुखका स्वाद वे भी नहीं ले सक्ते ।
ग्रन्थान्तर* जेसिं विसये सुरदि तेसिं दुःखं च जाण साहावं ।
जदि तं णत्थि सहावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥२॥
अर्थ-जिन पुरुषोंकी विषयोंमें तीव्र लालसा है, उन्हे स्वाभाविक दुःखी समझना चाहिये । क्योंकि विना उस दुख-स्वभावके विषयसेवनमें उनका व्यापार ही नहीं हो सका।
भावार्थ-पहले पीडा उत्पन्न होती है, उसीका प्रतीकार विषयसेवन है। परन्तु विषयसेवन स्वयं पीडाका उत्पादक है । इस लिये विषय सेवीकी दुःखधारा सदा प्रकटित ही रहती है।
सारांशसर्व तात्पर्यमत्रैतद्दुःखं यत्सुखसंज्ञकम् । दुःखस्यानात्मधर्मत्वान्नाभिलाषः सुदृष्टिनाम् ॥ २५८ ॥
अर्थ-उपर्युक्त कथनका समग्र सारांश यह निकला कि जिसकी संसारमें सुख संज्ञा है वह दुःख ही है और दुःख आत्माका धर्म नहीं है । इसी लिये सम्यग्दृष्टी पुरुषकी विषयोंमें अभिलाषा नहीं होती। ___* यह भी क्षेपक गाथा है।