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मख्याये । 1
सुबोधिनी टीका। अर्थ-जो सुख इन्द्रियोंसे मिलता है वह अपने और परको बाधा पहुंचानेवाला है। हमेशा ठहरता भी नहीं है, बीचबीचमें नष्ट भी हो जाता है, बन्धका कारण है, और विषम है इसलिये वह दुःख ही है।
कर्मकी विचित्रता-- भावार्षश्चात्र सर्वेषां कर्मणामुदयः क्षणात् । वज्राघात इवात्मानं दुर्वारो निष्पिनष्टि वै ॥ २४६ ॥
अर्थ-उपर्युक्त कथनका सारांश यह है कि सम्पूर्ण कर्मोका उदय एक क्षण मात्रमें बज होनेवाले आघात ( चोट ) की तरह आत्माको पीस डालता है । यह कर्म बड़ी कठिनतासे दूर किया जाता है।
व्याकुलः सर्वदेशेषु जीवः कर्मोदयाद्धृवम् ।
वन्हियोगाद्यथा वारि तप्तं स्पर्शविलब्धितः ॥ २४७॥
अर्थ-जिस प्रकार अग्निका स्पर्श होनेसे जल तपता है ( खलबल खलवल करता है ) उसी प्रकार यह जीव भी कर्मोके उदयसे सम्पूर्ण प्रदेशों में नियमसे व्याकुल हो रहा है।
साताऽसातोदयादुःखमास्तां स्थूलोपलक्षणात् ।
सर्वकर्मोदयाघात इवाघातश्चिदात्मनः ॥ २४८ ।।
अर्थ-साता वेदनीय और असाता वेदनीयके उदयसे दुःख होता है यह कथन तो मोटी रीतिसे है । वास्तवमें सम्पूर्ण कर्मोंका ही उदय जीवात्माको उसी प्रकार आघात पहुंचा रहा है जिस प्रकार कि वज्रकी चोट होती है।
सम्यग्दृष्टी भी इससे नहीं बचा है। आस्तां घातः प्रदेशेषु संदृष्टरुपलब्धितः।। वातव्याधेर्यथाध्यक्ष पीड्यन्ते ननु सन्धयः ॥ २४९ ॥
अर्थ-सम्यग्दृष्टीके प्रदेशोंमें भी उस कर्मका आघात हो रहा है। जिस प्रकार वात व्याधि (वायु रोग से घुटनों, कमर आदिकी मिली हुई हड्डियां दुखती रहती हैं उसी प्रकार कर्मका आघात भी दुःख पहुंचा रहा है।
कोई कर्म सुखदायी नहीं हैनहि कर्मोदयः कश्चित् जन्तोर्यः स्यात्सुखावहः। . .
सर्वस्य कर्मणस्तत्र वैलक्षण्यात् स्वरूपतः ॥ २५० ॥
अर्थ-कोई भी ऐसा कर्मोदय नहीं है जो इस जीवको सुख पहुंचानेवावाला हो, जीवके विषयमें तो सभी कर्मोंका स्वरूप विलक्षण ही है । अर्थात् वहां तो सभी कर्म जड़ता ही करते हैं। कैसा ही शुभ अथवा अशुभ कर्म क्यों न हो जीवके लिये तो सभी दुःखदाई है।