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पञ्चाध्यायी।
[ दूसरा सम्पदृष्टिकी निगतावैषयिकसुखे न स्याद्रागभावः सुदृष्टिनाम्। ,.
रागस्याज्ञानभावत्वात् अस्ति मिथ्यादृशः स्कूटम् ॥ २५९ ॥ - अर्थ- सम्यग्दृष्टियोंका विषयजन्य सुखमें रागभाव नहीं है, क्योंकि राग अज्ञान. भाव है, और अज्ञानमय भाव सम्यग्दृष्टिके होते नहीं, यह वात पहले ही कही जा चुकी है इस लिये वह रागभाव मिथ्यादृष्टि के ही नियमसे होता है।
सम्यग्दृष्टिको अभिलाषा नहीं हैसम्यग्दृष्टस्तु सम्यक्त्वं स्यादवस्थान्तरं चितः।
सामान्यजनवत्तस्मानाभिलाषोऽस्य कर्मणि ॥ २६० ॥
अर्थ—सम्यग्दृष्टिकी आत्मामें सम्यग्दर्शन गुण प्रकट हो चुका है, इससे उसकी • आत्मा अवस्थान्तर रूपमें आ चुकी है । इसीलिये सामान्य मनुष्योंकी तरह सम्यग्दृष्टिको क्रियाओंमें अभिलाषा नहीं होती है।
___ सांसारिक भोगोंमें सम्यग्दृष्टिकी उपेक्षा हैउपेक्षा सर्वभोगेषु सदृष्टेईष्टरोगवत् ।
अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गजः ॥२६१॥
अर्थ—सम्यग्दृष्टिको प्रत्यक्षमें देखे हुए रोगकी तरह सम्पूर्ण भोगोंमें उपेक्षा (वैराग्य) हो चुकी है और उस अवस्थामें ऐसा होना अवश्यंभावी तथा स्भाविक है।
समर्थ-सम्यग्दर्शन मुणसे होनेवाले स्वानुभूति रूप सच्चे सुखास्वादके सामने सम्पादृष्टिको विषयसुखमें रोगकी तरह उपेक्षा होना स्वाभाविक ही है।
__ हेतुवादअस्तु रूढिर्यथा ज्ञानी हेयं ज्ञात्वाऽथ मुञ्चति ।
अत्रास्त्यावस्थिकः कश्चित् परिणामः सहेतुकः ॥ २६२ ॥
अर्थ-ज्ञानी पुरुष सांसारिक पदार्थोंको हेय ( त्याज्य ) समझकर छोड़ देता है। यह बात प्रसिद्ध तो है ही परन्तु इस विषयमें अवस्थाजन्य कोई परिणाम हेतु भी है उसे ही बतलाते हैं
_ अनुमान
सिद्धमस्ताभिलाषत्वं कस्यचित्सर्वतश्चितः। देशतोप्यस्मदादीनां रागभावस्य दर्शनात् ॥ २६३ ॥
अर्थ—जब हम लोगोंके भी एक देश ( किन्हीं अंशोंमें ) राग भावका त्याग दिखता है तो किसी जीवात्माके सर्वथा त्याग भी सिद्ध होता है।