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पञ्चाध्यायी।
[दूसरी तस्य मन्दोदयात् केचित् जीवाः समनस्काः क्वचित् ।
तद्धेगमसहमाना रमन्ते विषयेषु च ॥ २५१॥ .
अर्थ-उस कर्मके मन्द उदय होनेसे कोई कहीं संज्ञी जीव उस कर्मके वेगको नहीं सहन कर सक्ते हैं और विषयोंमें रमने लग जाते हैं।
केचित्तीवोदयाः सन्तो मन्दाक्षाः खल्वसंज्ञिनः।। केवलं दुःखवेगार्ता रन्तुं नार्थानपि क्षमाः ॥ २५२ ॥
अर्थ-कोई कोई मन्द इन्द्रियोंको धारण करनेवाले असंज्ञी जीव उस कर्मके तीव्रोदयसे सताये हुए केवल दुःखके वेगसे पीडित होते रहते हैं। वे पदार्थोंमें रमण करनेके लिये भी समर्थ नहीं हैं।
सांसारिक सुख भी दुःख ही है । यहःखं लौकिकी रूढिनिर्णीतस्तत्र का कथा ।
यत्सुखं लौकिकी रूढिस्तत्सुखं दुःखमर्थतः ॥ २५३ ॥
अर्थ-लोकमें जिसकी दुःखके नामसे प्रसिद्धि है, वह तो दुःख है ही यह बात तो निर्णीत हो ही चुकी है । उस विषयमें तो कहा ही क्या जाय, परन्तु लोकमें जो सुखके नामसे प्रसिद्ध है, वह भी वास्तवमें दुःख ही है।
वह दुःख भी सदा रहने वाला हैकादाचित्कं न तदुःखं प्रत्युताच्छिन्नधारया।
सन्निकर्षेषु तेषूच्चैस्तृष्णातकस्य दर्शनात् ॥ ३५४ ॥
अर्थ-वह दुःख भी कभी कभी नहीं होनेवाला है किन्तु निरन्तर रहता है। उन इन्द्रिय सम्बन्धी विषयोंमें इस जीवका तीव्र लालसा रूपी रोग लगा हुआ है, इसीसे इसके वह दुःख सदा बना रहता है।
इन्द्रियार्थेषु लुब्धानामन्तर्दाहः सुदारुणः।
तमन्तरा यतस्तेषां विषयेषु रतिः कुतः ॥ २५५ ॥
अर्थ-इन्द्रिय सम्बन्धी विषयोंमें जो लोलुपी हो रहे हैं, उन पुरुषोंके अन्तरंगमें सदा अत्यन्त कठिन दाह (अग्नि समान) होता रहता है। क्योंकि विना अन्तर दाहके हुए उनकी विषयोंमें लीनता ही कैसे हो सक्ती है।
भावार्थ-विषयसेवियोंके हृदयमें सदा तीत्र दाह उठा करता है, उसीके प्रतीकारके लिये वे विषय सेवन करते हैं, परन्तु उससे पुनः अग्निमें लकड़ी डालनेके समान दाह पैदा होने लगता है। इसीसे कहा जाता है कि विषयसेवी पुरुषको थोडा भी चैन नहीं है, वह सदा इसी प्रकार दु:ख भाजन बना रहता है।